पृष्ठ:मानसरोवर २.pdf/९८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
९७
विद्रोही

( २ )

इसके बाद मैं पिताजी के पास चला आया और कई साल पढता रहा ! लखनऊ का जलवायु मेरे अनुकूल न था, या पिताजी ने मुझे अपने पास रखने के लिए यह बहाना किया था, मै निश्चय नहीं कह सकता । इण्टरमीडिएट तक मैंने आगरे ही मे पढा , लेकिन चचा साहब के दर्शनों के लिए बराबर जाता रहता था । हरएक तातील मे लखनऊ अवश्य जाता और गरमियों की छुट्टी तो पूरी लखनऊ ही मे कटती थी। एक छुट्टी गुजरते ही दूसरी छुट्टी आने के दिन गिनने लगते थे। अगर मुझ एक दिन की भी देर हो जाती, तो तारा का पन आ पहुँचता । बचपन के उस सरल प्रेम में अब जवानी का उत्साह और उन्माद था । वे प्यारे दिन क्या कभी भूल सकते हैं । वहीं मधुर स्मृतियाँ अब इस जीवन का सर्वस्व हैं । हम दोनों रात को सबकी नजरें बचा- कर मिलते और हवाई किले बनाते । इससे कोई यह न समझे कि हमारे मन मे पाप था, कदापि नहीं । हमारे वोच में एक भी ऐसा शब्द, एक भी ऐसा सकेत न आने पाता, जो हम दूसरों के सामने न कर सकते, जो उचित सीमा के बाहर होते । यह केवल वह संकोच था, जो इस अवस्था मे हुआ करता है। शादी हो जाने के बाद भी तो कुछ दिनो तक स्त्री और पुरुष बड़ो के सामने बातें करते लजाते है। हाँ, जो अँगरेजी सभ्यता के उपासक हैं, उनकी बात मैं नहीं चलाता , वे तो बड़ों के सामने आलिगन और चुम्बन तक कर सकते हैं। हमारी मुलाकातें दोस्तों की मुलाकातें होती थीं- कभी ताश की बाजी होती, कभी साहित्य को चर्चा, कभी स्वदेश-सेवा के मनसूबे बँधते, कसी संसार-यात्रा के । क्या कहूँ, तारा का हृदय कितना पवित्र या ! अब मुझे ज्ञात हुआ कि स्त्री कैसे पुरुष पर नियन्त्रण कर सकती है, कुत्सित को भी कैसे पवित्र बना सकती है। एक दूसरे से बात करने में, एक दूसरे के सामने बैठे रहने में हमे असीम आनन्द होता था। फिर, प्रेम की बातो की ज़रूरत वहाँ होती है, जहाँ अपने अखण्ड अनुराग, अपनी अतुल निष्ठा, अपने पूर्ण आत्म-समर्पण का विश्वास दिलाना होता है। हमारा संबंध तो स्थिर हो चुका था। केवल रस्मे वाक़ी थीं। वह मुझे अपना पति समझती थी, मैं उसे अपनी पत्नी समझता था । ठाकुरजी के भोग लगने के पहले थाल के पदार्थो मे कौन हाथ लगा सकता है। हम दोनो मे कभी-कभी लड़ाई भी होती थी, और कई-कई दिनो तक बातचीत की नौवत न आती, लेकिन ज्यादती कोई करे, मनाना उसी को पड़ता था। मैं ज़रा सी बात पर तिनक जाता था। वह