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मिश्रबंधु-विनोंद

उत्तर प्रारंभिक हिंदी ( संवत् १४०७. के लगभग )

महात्मा गोरखनाथजी

सौ वह पुरुष संपूर्ण तीर्थ अस्नान करि चुकौ, अरु संपूर्ण । पृथ्वी ब्राह्मननि कौ दै चुकौ, अरु सहस्र जज्ञ करि चुको, अरु देवता सर्वं पूजि चुकौ्, अरु पितरनि को संतुष्ट करि चुकौ, स्वर्गलोक प्रातृ करि चुको आ मनुष्य के मन छन मात्र ब्रह्म के बिचार बैठो ।

प्रौढ़ माध्यमिक हिंदी ( संवत् १६००-१६४८ )

गोस्वामी विट्टलनाथजी

जमें के सिषर पर शव्दायमान करते हैं त्रिबिधि वायु बहत हैं। निसर्ग स्नेहाद् सपी कू संबोधन, प्रियाज़ नेत्र कमल कू छुक मुद्रित दृष्टि होय कै बार बार कछु सुखी कहत भई यह मेरो मन सहचरी एक क्षण ठाकुर को त्यजत नाँही ।

गंगभाट ( १६२६ )

इतना सुनके पादशाहाजी श्रीअकबरशाहाजी श्राद सेर सोन नरहरदास चारन को दिया इनके डेढ़ सेर सोना हो गया।

गोस्वामी बोकुलनाथजर ( सं १६४८ )

तब दामोदरदास हरसानी ने विनती कीनी जो महाराज आप याको अंगीकार कब करोगे तब श्री आचार्यजी महाप्रभून नै दामोदर- दाल सो कहो जो यासो अब वैष्णव को अपराध पढै गो तो हम . या लक्ष जन्म पाछे अंगीकार करेंगे ।

महात्मा नाभादासजी (संवत् १६६० के आसपास )

" तव ओमहाराज कुमार प्रथम अशिष्ट महाराज के चरन छुइ प्रनाम करत मए|फिर अपर वृद्ध समाज तिनको प्रनाम करत भए । फिर श्रीराज धिराजजू को बोहार करिकै श्रीमहेंद्रनाथ दशरथज़ू के निकट बैठतें भए।

गौस्वामी तुलसीदास । १६६६)

संवत् १६६३ समये कुआर सुदी तेरसी बार शुभ दिने लिखीत