और मुसिक-अङ्क -सा आहार ली थीं, और आनंद-सन्न होकर प्रायः मंदिर में श्रीकृष्णचंद्र के सामने नाचती और गाती थी । इनके ऐसे आचर से इनके स्वजन इनसे स्ष्ट रहते थे और उन्होंने इनके मारने के प्रयत्न कई बार किए, परंतु परमेश्वर ने इनकी सदा ही रक्षा की । भजनानंद में उन्मत्त होकर ये दूर-दूर निकल जाती थीं और इन्होंने हारिक तथा वृंदावन के प्रत्येक मंदिर के अपने भजनों द्वारा सम्मा- नित किया । थे जहाँ राई वहीं इनका बड़ा सत्कार हुआ, क्योंकि भक्तजन एच और लोग इनके बड़े अादुर की दृष्टि से देखते और साक्षात् देवी की भाँति इनकी पूजा करते थे। ये संद्र बातें जानकर रान्हाजी को अपने कुव्यवहारों के कारण बड़ा पश्चात्ताप होता था। एक बार इनके पति ने भिक्षुकों की भाँदि गेरुआ इस्त्र धारण करके श्रृंदा- क्न में क्सि मंदिर में मीराबाई र्थी वह जाकर मीरा से भिक्षा माँगी । मीराजी ने उत्तर दिया कि एक भिकली के पास सिवा आर्शीर्वाद के और क्या है जो वह आपको दे ?” भोजराज ने कहा-“नहीं केवल तुहीं मुझे दान दे सती है।” मीरा ने पूछा---
- किस प्रकार ?” इस पर उत्तर पाया कि “मुझे क्षमा करके ।”
इतन्दा कह भोजराज ने गैरु बस्नं उतार डाला । अपने पति ने अचानकर बाईजी इन्हें तुरंत क्षमा करके उन इच्छानुसार फिर चितर वापस गईं। इन्होंने नरसीजी का मायर, गीतविद क्वी टीका, राय सोरठा के पद, और रारगोविंद-नामक चार ग्रंथ अदाए हैं। ये ग्रंथ अवश्य ही अच्छे होंगे, परंतु हमारे देखने में नहीं आए। | *भज़न मीराबाई नामक ३६ पृष्ठों का इन्छे भजनों का संग्रह हमारे पास है । इसमें आँतिस बड़े-बड़े भजन हैं ! इनमें से बहुत-से कल्पित जान पड़े हैं, परंतु ञ्च असङ्ख हैं उनमें भीरा की प्रगढ़ भक्ति का चित्र प्रदुत्व देख पन्त्य है । इस इसे संवा इस कारवा इते हैं कि इसमें स्वतंत्र ग्रंथ की भॉति चंदना, कृवि का वर्णन,