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मिश्रबंधु-विनोंद

मिश्रर्दधु-विद् हा भयो तीरथ ऋतु कीने झह लिए रवट का । इस वेही कम गरिब न करना माटी में मिच्चि जासी । यो संसार चहर की दार्ज सँझ पर्यों उठ जासः । कहा भयो है भगईं पहर घर तज्ञ भए संन्यासी । जोगी होय जुगुति नहिं जानी उलट जनम फिरि आसी। अरज करौं अबढ़ा करे जोरे श्याम तुमारी दासी । मीरा के प्रभु गिरिधर नागर काटौ जन्म की फाँसी । मन नै परसि हरि के चरन । ( 2 ) : सुभग तज्ञ कमले कोमल त्रिविध ज्वाला हरन । जे चरन पहलाद परसे इंपदवी धरन । जिन चरन थुध अटल ईनो राखि अपने सरन ; जिन दरन ब्रह्मंड भेट्यो भवसिख श्री भरन । जिन चरन प्रभु परसि हीने तरी गौतम घरन ; जिन दरल कालीहि वाध्य गोप लीला करन । जिन बरन धाग्यो गोबर्द्धन गद्य मघवा हरन ; | दास माँ लक्षं गिरिधर अगम तादन तरन । यद्यपि इनके ग्रंथ हमने नहीं देखे हैं, तथापि इनकी स्फुट कविता श्रवण करके हम यह कह सकूते हैं कि इनकी रचना बहुत ही भकि- पूर्ण तथा ऊँचे दर्जे की है । उत्तम कविता बनाने के वास्ते सहृदयता । और तल्लीनता की सबसे अधिक आवश्यक्ता है और यह गुण अछ। कृविता के प्रधान कारण हैं । हे गुण इनमें पूर्छ रूप से थे । इन्होंने जयदेव-रचित रतिगोविंद झी टीका बनाई है। इससे अनुमान होता है कि ये संस्कृत की भी पंडितो थौं । म रा को दास की और में खेलते हैं। { ६४ ) श्री स्वामी हरिदासज ललिता सखी के अवतार समझे जाते थे। इन्होंने टाल वैष्सव संप्रदाय चलाई । इनके