पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद १.pdf/३११

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प्रौद माध्यमिक-प्रकरण रामचंद्रिका का संवत् ३६५* में रचा जाना पाया जाता है। वीरसिंह देवग्नि श्री छप चुका है। इसमें १९.४ पृष्ठ हैं। यह सं० १६६४ का अनर हैं। इसकी रचना इनके अन्य ग्रंथों से शिथिल है । जर् चंद्रका की रचना संवत् १६६६ में हुई है । • केंददास की भाषा संस्कृत और बुंदेलखंडी मिची हुई ब्रजभाषा है, परंतु दडू परम प्रशंसनीय तथा वित्तःकासी हैं। इन्होंने अपनी था-संगिङ कविता में छंद बहुत शीत्रता से बदले और तुकांत ॐ श्रीं बडी सवीं नहीं रखी । आप अनुप्रास झ इष्ट न था । उचित रीति से अनुप्रास तथा यमादि का प्रयोग में करते थे । इनकी रचना में अलंकार बहुतायत से हैं, परंतु उसे उसमें अश्वि- लों में नहीं हैं। उत्तम ऋद का इन्दक्के काव्य में अक्षय है । अयोध्य, सुर्योदय, धनुषयज्ञ, स्वयंवर इत्यादि बहुत-से बिष्यों के परमत्तम वर्णन इन्होंने किए हैं। ये महाथे सर्वव्यापिनी इष्टि के । कदिई छ । परशुराम का वर्णन इन्होंने और कवियों से अच्छा किया। र विभीषण के उसके राम की तरफ़ मिल जाने के कारण अश्व- मैच में सब से खूब फटकार दिलाई है . इनकी कविता संस्कृत- मिश्रित होने के कारण कठिन होती थी । उसके छात्र थाह लो । कहावत प्रचलित है-झवि को दीन ने चई बिदाई ! कैं, कैसव की कबिताई ।' कथा-प्रासंगिक कविता की प्रणाली प्रायः इन्हीं की

  • चढ़ाई हुई है । पाठवें को इनका विशेष वन नवरस में देखना

माल गुही गुन झाल खटं रूटको डर' मोतिन के सुखदैन । • अहि छिलोकल आरसी ले कर आरस छु सरसनैन । कैद स्याम दुरे दरसो परसी मति सो उपमा अति मैन । . सूरज मंक में सांस-मंडन मध्य ४ जनु छर छिंदः । ..