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मिश्रबंधु-विनोंद

मिश्रबंधु-भक्निोद उन्होंने कुछ भी न कही, परंतु जब बुड्ढी होने के कारण जंगल में छोड़ना पड़ा तय यह भंड़वा बनाया। विजन ऐसे अनुचित इन पार तत्काल भैौवा बनाते हैं, न कि घर जाने सोच-विचारानंतर ऐसा अरें। फिर गं का-सा अंग कधि तो ऐसी अवश्य करता । पाँचवें बंदू अकबर के समय से मुगलों में सम्मानित रहे, तब दे. बृद्ध और मानी कबि को औरंगज़ेब इतना बड़ा बादशाह हो ऐसी बृन्दा हस्तिनी कैसे देतो ? यदि कहिए कि उसने मज़ाक़ में देखता क्रिया होगा, तो गं इतने मज़ाकिए हर ऐसी मूर्खता क्यों करते कि उसके मज़ाकृ को सच समझकर उसका भंडश बनाने लगते । यदि कहि छि नाङ्ग में भंवा भी बना होगा, तो हम कहेंगे कि इतने बड़े अँौर संजडा बादशाह से ऐसे विरद्ध भंडौबा' द्वार कोई मज़ाकू नहीं कर सकता और बादशाह की चार पीड़ि का नमक कर एक वयोवृद्ध मनुश्य गैर इतनी कृतघ्या कभी न करते कि एक अनुचित व्यवहार पर भी बादशाह का ऐसा मैंडीका बन डालतें । इन विचारों से हमको निश्चय है कि यह छंद गंग का बनाया हुआ नहीं है। हम्कों यह छंद ठ-दस साले से कंठस्थ हैं। और हमने मुंशोजीदाळे इस्ट लेख के छपने के अयः दो माल पुर्द सन् १९०७ के देवनार के चतुर्थ अंक में यह छंद प्रकाशित भी कर दिया था। उसका पाठ मुंशी के पाठ से इडुन भिन्न है और . उस पाठ में उपर्युक्ल दूषछ भी नहीं हैं। वह यों हैं-. . .. .दिमिर नेम इ काळ चल्ली बाबर के हलके ।। ." ही हुमा हो गई अङ्गदर के दबुर्के । ... | हाँगर अंत द्धि पौडि ॐ अर हो । साहिभहाँ के न्याय तह पुनि मोडू चढाथो । । । चल रहल आई ल अब भ रत वन र ढेर । रंब करिम साई नै दीन्ह कविरा कर । . .