पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद १.pdf/६७

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भूमिका ।। ३।। दैव ३ सुभाय मुसुक्काय उछि यहि } | डिसिकि-सिसिकि निसि खोई रोय प्रयोति । । । ॐ नै ही धीर अिनु दिरही औरझेलदेथा . | हाय-हाथ करि पछताय न अछु होतं. ! ... बड़े-बड़े नैनन से अाँस भरिभरि हरि :: .... गौरी-गौरो मुख अाजु औरौ-सौ बिलानों जात । । यह रूघनाक्षर छैद है, जिसमें ३२ वर्ण होते हैं और प्रथम यति सौद्धहवें वर्ल्ड पर रहती हैं * एक चरन क बरन जहूँ दुतिय बरन में तीन ; सौ अतिभंग कवित्त है, करे न सुकविं प्रीन् । यहाँ रिसानी शब्द का 'र' अक्षर प्रथम सुख में है और सानी' दूसरे में । इस हेतु छंद मैं यतिर्भर-दूषण है। चतुर्थ पद नै असू भर भरकर तथा दर करके पीछे वाक्य-ऋत द्वारा कोई अन्य कर्म माँगता है, परंतु कवि ने कर्ता-संबंध अॅई क्रिया न लिखकर रों-गरों मुस्व अजु ओरो- बिलानी जात'-मात्र लिखा है, जिससे छंद में दुष्पबंध:दृष लगता है। को जानै री बौर में कई गुरुवर्ण साथ-साथ एक स्थान पर आ गए हैं, जिनसे जिङ्कः कौं क्लेश होने से प्रबंध-योजना अच्छी नहीं हैं। यहाँ अंतरंग सखी का वधन अहिरंग सखी से है। जिस बहिरंग सखी के सम्मुख गात छुआ गया था, वह चली गई थी। वचने दूसरी बहिरंग से कहा गया है, औं वह हाल नहीं जानती है। केवल अंतरंग्या सखी के सम्मुख यदि गात छु गया होता, तो नायिका को संकोच न लागता, क्योंकि अंतरं ग सखी को अचार्यों ने सभी भैई की जाननेवाली माना है, जिसमें पूरा विश्दास रक्खा आता है। यहाँ गुरु-सोच से गुरूजनों से संबंध रखनेदावा शौक नहीं माना आ सकताक्योंकि एक त शब्द गुरुजनों को प्रकट नहीं करते और दूसरे उनके सम्मुख गात्र-स्पर्श आदि बाह्म-संबंधिनी भी कई