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मिश्रबंधु-विनोंद

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३३ मिश्रबंधु-विनोद क्रियाही महीं हो सकतीं । एतावता संकोचव भारी ॐ झा प्रयोजन लेना चाहिए । ऋगलोचने में वाचक धर्मोपमान लुला उपमा हैं । यहाँ उपमेय-मात्र कहा गया है। पूरा उपमा है मृग के लोचन समान चंचल त्वाचनबाली रूबी, परंतु यहाँ धर्म चंचलता, वाचक्क एवं उपमान का प्रकट ऋथन नहीं है। थोड़ा ही-सा त छूने से क्रोध करने का भाव नायिका का मुग्धात्द प्रकट झरता है। नायक अच्छे भाव से सुसकराकर उठ गया । यहाँ सुभाय वं मुसकाय शब्द जुगुप्स को बचातें हैं, क्योंकि यदि नायक अप्रसन्न होकर छठता, तो बीभत्स-रस की संचार हो जाती, जो ऋर का विरोधी है। नायक के उठ जाने के पीछे नायिका ने जितने कर्म किए हैं, इन सबसे मुग्धात्वं प्रकट होता हैं। निशि खोने एवं प्रात पाने में रूढ़ि क्षणा है । द निशि अपने पास का कोई पदार्थ है, जो त्वया जा सके और न प्रति कोई पदार्थ है, जो मिल सके । इस प्रकार के कथन संसार में प्रचलित हैं, जिससे रुढ़ि क्षण हो जाती है। ‘गोरो मुख आजु -सों क्लिानी जात *"गौण सारोपी प्रयोजमत्रता लक्षण एवं पूएमालंकार है। मुख में गुश देखकर होलाएन स्थापित किया गया है। उपमा में यहाँ गौराई और बिलाने के दो धर्म हैं। जिलानेवाले गुण में दुष्यवध ठूषण जंगने का भय था, क्योंकि औला बिलकुल लोप हो जाता है, किंतु सुख नहीं । कवि ने इसी कारण बिलकुल बिला जानी न कहकर केवळ दिलानी जात कही है। बीर, बिरही, बिथा, सोच, गुरु-सोच, ऋगलौचन, गोरी गोरी, औरों, भय, मुसकाय, भर-भरि, ढरि आदि शब्दों से वृत्त्यानुप्रास का चमत्कार प्रकट होता है। अरि-भर, गोरो-रो, सिसिकि-सिसिके, बड़े-बड़े और हाय-हाय दीप्सित पद हैं। वीप्सा का यहाँ अच्छा चमत्कार है। इस छंद में पूर्ण ऋ बाररस है। नेवा हँसि छुयो गति में रहे स्थायी होता है । “नेकु जु प्रिय जन देखि सुने आम्द अव चित होथ ; अति कोविद पति कथिन के