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मिश्रबंधु-विनोंद
पुर कहिए छौटौं नगर राजनगर के तीर ।

बन में जें लघु पुर बसैं तिनस कहियत ग्राम। ' नगर पुर से भी बहुत बड़ा होता है । कवि ने यहाँ लिखा है। कि इन ग्रार्थों और पुरों को न केवल साधारण नगर, बरन् नारा एवं सुर-नगर सिहाते हैं, सौ यहाँ अयोग्य के योग्य वर्णन से संबंधाति- शयोक्कि अलंकार पूरा हुआ। पुर-ग्रामों में स्वयं बड़ाई नहीं है, परंतु राम के रास्ते में पड़ने से उन गौरव आया है, जिससे द्वितीय अर्थतिरन्यासालंकार होता है । पहले नाग-नगर सिहए और फिर उनसे भी श्रेष्ठतर सुर-नगर सिहा गए, सो उत्तरोत्तर महत्त्व-वृद्धि से अणेन में सालं कार आयो । केहि सुकृती केहि घरी बसाए में केहि के उत्तमता-पूर्वक दो बार आने से पदार्थावृत्त दीपक अलंकार है । ऐसे स्थानों पर वण्र्य एवं अवयं का धर्म प्रायः एक नहीं होता, परंतु आचार्यों ने फिर भी यह अलंकार माना है। इन दोनों प्रश्नों से कवि का कुछ पूछने का प्रयोजन नहीं है, वरन् इनसे वह प्रकट करता है कि किसी बड़े मक्रती ने उन्हें किसी अच्छी धड़ी में बसाया। इस प्रकार काकू-श्रलंय हुआ । इन दोनों प्रश्नओं एवं “धन्य पन्यमय परम सौहाए' से उनके माहात्म्य का बड़ा भारी गोरव दिखलाया गया है, जिससे उदात्त अलंकार होता है । ‘धन्य पुन्य' में नृत्यानुप्रास है । किसी सुकृतो ने अच्छे समय पर ग्राम बसाया, जिसके योंग से अल्प ग्राम में भी इतम बड़ाई पाई कि जसमें राम-चरण गए । यहाँ द्वितीय अर्थातर-न्यासालंकार है । *जहँ-जहूँ" में वीप्साले कार हैं और राम-चरण चलि जाही' में उपादान-लक्षणा है; क्योंकि चरण राम के चलाने से चलते हैं ।

  • तहँ-समान अमावति नाहों' में चतुर्थ प्रतीपालंकार है। क्योंकि

यहाँ उपमेय से उपमान का निरादर हुआ है। यहाँ द्वितीय अर्थातर-न्यासालंकार एवं संबंधातिशयोक्ति भी हैं। "परसि पद-पदुम-पराग