पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद १.pdf/८५

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और व्यंग्यमूलक होती है और वचन, क्रिया, सुर तथा चेष्टा से प्रकट होती है ? य तक शब्दों से मुख्य प्रयोजन रहा, परंतु अग? न्चलकर ध्वनि-भेद में वाक्य से संबंध है । किसी वाक्य से कुछ शब्दार्थ निकलता है और इस शब्दार्य से कुछ पृथक भाव भी कहीं-कहीं अट होता है । यही पृथक् भाव दिखाने में ध्वनि-भेद म त हैं । यदि कहा जाय कि “अपके चरा ॐ ॐ ॐ मैं वित्र हो गया, तो यहाँ प्रक्ट में तो रङ को यश-रह हैं, परंतु वास्तव में आपका माहात्म्य हा गया हैं । यही माहात्म्य ध्वनि- मेड़ ले प्रकट होता है । ध्वनि अगूढ़ और गूढ़ होत्री हैं। अगृढ़ ध्वनि वह है, ॐ साधारण ले $ी समझ में अा अाय ? परंतु राढ़ ध्वनि के केवलं साहित्यचेता एवं प्रवीण पुछ ही समझ सकतें हैं। अत्यंत तिरस्कृत वाच्य-ध्वनि, अधातरक्कम-ध्वनि अादि १ भम् की ध्वनियाँ होती हैं ! इसके आगे भी तात्पर्य प्रधान है । यदि आपने मुझसे कहीं जाने को ब्रहा और मैंने सीधा-सादा इनकार १ ककै जाने में बहुत-तों आपत्तियाँ बताकर बङ्कथन किया कि आगे जैसी मङ्ग, तो सब बातों का तात्पर्य यह निकला कि मैं अपना नहीं चाहता। किस प्रबंध के सारश के हुए कहते हैं। सिंगल पदार्थ-नर्णय के पीछे पिंगल पर विचार करना चाहिए ! इसमें मेरु, मर्कटी, पताकः, नष्ट, उद्दिष्ट और प्रस्तार में सिवा कौतुक के और कुछ नहीं है। छेद दो प्रकार के होते हैं—एक मरावृत्त और दूसरे वर्णवृत्त । मात्रावाने छंदों में वर्षों का विचार नहीं होता और बर्दाले छंदों में मात्रा को नहीं । सबै आदि की भाँति कुछ छंद देले भी होते हैं, जिनमें मात्रा तथा बर्स दोनों का विचार होता है। वर्ण मुरु और लव होते हैं । ‘काम’ में ‘कगुरु एवं ‘भ धु है। इसी प्रकार अंजन एवं बौद्ध में भी पहले ई अक्षर गुरु ,