पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद १.pdf/९३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

भूमिका ३९ ही अलंकार मुख्य माने हैं और इनमें से भी उपमई और स्वभाव को विशेषतया प्रधान रखा है। अहंकार ३ उपस, अनन्वय, उप- मैयौपमः, अतींप, रूपक और परिणाम उपमह से पूरा संबंध रखते हैं । इनके अतिरिक्क उत्प्रे, तुल्यायोगिता, दीपक, अतिग्रस्तुपमा, दृष्टांत, निदर्शनी, व्यतिरेक, समासोहि, अप्रस्तुत प्रशंसा, प्रस्तुतांकुर और ल- लित भी उपमा के ही समान हैं। और भी अपवा ति, अतिश्योक्लि, निदर्शना, उक्लि, आक्षेप, विभावना, असंगति, विशेष, अहवंस और उल्लास प्रधान अलंकार हैं । रसददादिकं सुत अलंकार ऐसे हैं ॐ रस भेद में भी गिने जा सकते हैं। साधाय कवि अलंकारों के जाने म पूर्ण प्रयत्न करते हैं, पर तो भी उनकी रचना में एकाध अलंकार ऋदिन से आई है। इधर उल्छुछ कवि साधारण वर्णन करते चले जानें हैं, पर तु में ऐसे शब्द एवं भाव लाते हैं जिनमें आप-से-अपि अलंकारादि-संबंधी उसमता बहुतायत से अरे ज्ञाती हैं । काव्यांग । आचार्यों ने रसों को काय-फल का रस मान्दा है ! एक नहाशय ने कविता के विषय में कहा है कि- व्यंग्य जीव ताळे कहते शब्द अर्थ हैं देह ;

  • गुन गुन, भूषन भूषनै, दून ठूषन एह ।

| इस मत में व्यंग्य को जीव मानना सर्वसम्मत नहीं है। यदि वाक्य में देह कहकर कवि अर्थ को मस्तिष्क और रस के जीव बतलाता, तों इसके कथन में शायद सर्वसम्मति की मात्रा बढ़ जाती । साहित्य-प्रणाली का यह अत्यैल सूक्ष्म दर्सन बह समास होता है । हमें शक है कि स्थानाभाव से इम इसका कुछ भी विस्तार नहीं कर सके । आशा है, यह वर्णन सहृदय पाठ का ध्यान इस ओर आकर्षित करने को काफ़ी हों। रीति-ग्रयों के अवलोकन से इसको पूरा स्वाद मिल सकता है। यहाँ इतना और कुछ देना चाहिए कि