पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद २.pdf/१५१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

देव] पुर्वातंकृत प्रकरण । ३६६ सग ले कुमेन विनोद मान्यों चहू द् छाद छिपे ही पदुनिन में प्रभात ही। अनुराग के गने रूप भरगनि अगनि ग्रेप मनेा उफनी। कयि दैव दिये सियरानी सचे लियानी के देखि साहगि सनी ॥ अरः धामन दास चढी बरसे मुसुकानि सुधा घनसार बनी। सपियान के आनन न्दुन ते अॅपियान की बन्नबार उनी ॥ छपद छबीले रस पीयर सदोष छात्र लोपट निपट नेई कपट दुवे परत । भंग मचे मध्य मग डुलत चुलत सास मृदु चरन चार धरनि धरे परत में देच मधुर दृक हृफत मनुक धेचे माधवी मपुर मधु कोलम ल’ परत ।। | दुहु कर जैसे जलद परसत दहा में हु पर झाई परे पुछुप झरे परत ॥ फाल्दि ही साझ उसे कर माझ ते देय रूप तत्र हैं जिन शान्यो । एक भली भई ब्राग तिहाई श्रीफल को कदली अहि झाल्यो । चमक बिश्वमा घुमायत कुंज के पिंजर में हि घायो । हा सुक नदि’ राखि सी तुकह चुन्या रद्द परोलिन पाया दैव पुनि के पाद नचानते हैं चियि चना लिदान गदेरी। चंगुल चीनल में परिवरलाल यायल नेचरी।।

    • ॐ गंतु दु की कार केंद्र कुजर खुश है।

हेरि सिकार रहे वाहू प्रजराज अहेरी ६ मा ८६ । '