पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद २.pdf/१७६

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मिश्पन्धविनाई। [मः ।। घारी पंग अमू जिन राप्ती । माग समृद जाति भिलाषी ॥ अंतःकरन चालिसाप । धारिठ घाम मुजस मराए । ददि के मायुध चार गनाए । ते जनु द्धिति रन दिन आए । घंपति के विज का एलिः निम्न लिम्पिरा छ। से कुछ विदत गिरि- गर्ने कान दंपति की हैं । गनपत गर्ने तक जुग थी॥ जिहाँ उमड्यो घन घेरा । घपति #झ पान झी ॥ सादि फट्फ झफारि मुलाया। गि। वैदेलप्रष्ट इगिलाया है। | अनि पति फिरि भूमि घरी । भुन पातसाही झकारी ॥ मलं पर्याद उमंड में ज्यों गेल इटुराय । स्वी पूडत बुदैल फुल फ्यिी चपतिराय ॥ कीने कुच राति उठि जागे । चम्पति या सरन के आने । उमङि चल्यी दारा के साह। घट्टी उन्हें जुद्ध रस भाई । चम्पतिराय जगत जसु छापा । ६ हज़ दारा बिचलायी ॥ अनि चम्पति रियो तुम पानी। धन धान काटके वरिटफुरानी ॥ धनि चंपति जिन ल दुल खंड़े । धनि बपति निज कुल जिन मंडे ॥ | धन धपति निरखछ जिन थापे । धनि चपति जिन सबल थापे । घने चंपति सजन मन भए । धनि चपति जग जस धराप ॥ पनि घंपति की पठन पानी । धनि चपति की चिर फहानी ॥ तब ती चंपति भयर सदाई । निर्ली भूमि भुज चल बागेलाई । चंपतिय फरै अध पेये । कैसे है चंपति करशो पयानैः । तव परवी हीन हिंदवाने । अपने वंस बचैत्र ।