पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद २.pdf/१८०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

मधग्रन्थुपिनोद। . [सं० १७६४ शान जिन्ता पाघघ । सर झीत पहिले मारे । रीती भर भरी इरावें । मन कर तेर फेरि भगवै ॥ | सत्कविर्य का एक, यद म य है कि वे अपने मायके के घन करने में समान्य यथार्थ था का कथन करके इनके साथ अपने नायक के ग़यों पर म' को उनके उदाहरण स्वरुप दिघला देते हैं। साल में यह बात पूर्ण रूप से पाई जाती है। यथा - दान दया घमसान में, जाके द्वियं उद् । साई चीर घशानिए, यौ' चा छितिन६ ॥ तिन में ति छत्री इपि छाप । चार जुगन न जे अपि । भूमिमार भुज दनि शैम्भे । पूरन कर चुकाने अरम्भे ॥ गोप घेद दुज ६ रपयारे । जुद बोति के दैत मारे ।। उधिन की यह वृत्ति घनाई । सदा तेग की जाय यमाई ॥ गाय वेद विप्रन प्रतिपाले । घाउ पेड़ धारिन पर थाले । उद्यम ने संपति घर अवै । उपम उद्यम कर संग सव हा । उद्यम ते अग में जसु जारी ॥ फर सपूत फटाघ । समुद उसरि उद्यम है जैये । उद्यम है जब यई सृष्टि प्रथम उपजाई । तैग वृत्ति त्रिन तम पाई । पर मैसूर पैपये ॥ यह संसार कठिन है भाई । सपल उमडि निबल के खाई ॥ छनक रजि संपत्ति के काजै । बेधुन मारत घे] म लाई । कइ काल गति जानि न जाई। सब ते कठिन काल गति भाई

  • सदा प्रबुद्ध बुद्धि ६ जाक। तासे कसे उनै कंज्ञाकी ।