पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद २.pdf/२७७

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मिथुदि। [. 14} जाते है और उसमें भावपूर्ण पर्य गर्मर छन् का भी अमाय न हैं । हम इसके उदाइराधे एक छन्द भी नीचे है आते हैं। वैनन के तरसैर्य प न कहो यं दिया विरहान ये । एक घर में कई पल पैयँ कहाँ लगि प्रानन का फलपैयं ॥ थै यही भ्रष ज्ञ में विचार सी चलि सातिदु पो पर' जैथे । मान्ध १ फी घाटे ६ उप प्राप्त पियारे का देवन यं ।।। दाख नै यस्य स एगि ७ वर्णन भी बहुत अच्ॐ किये हैं । कथा तहई चा से इ# जई झवरी का धर्स पफौरी । देरि दास अचाय अवाय तिहारे प्रसाद भनेर जेरी || फुघरी से पडू पाइप में पाइप फान्सै प्रीति की है। कुवर भक्ति वदाइ बंदि चढ़ाइय चंदन बेदम गरी ।। भाषा-साहित्य में यदि के प्राचीन कवि समालोचक हुमा । ६, ते चह थी महाकवि हैं। जैसे यई जाति के मुंशी थे, वैसे ही नहुने काम में भी मुशाम तम फी हैं। इस कथन की पुष्टि यायनिय के प्रथम अपाय एव चैदहवें अध्याय के पन्द्रों छंद ने इँटी है। | इन्होंने अपनी कविता में जहाँ त भौति के भी अच्छे पचन कहे हैं। देखिए काव्यनेय को छन्द ६३ अध्याय मात्र । इन्द में भी अपने प्रत्येक पन्ध के कयित अन्याय 9 में रस दि) , पर ऐसा बहुच नहीं हुआ है। इन सब गुणों के रहते हुए भी कद्दा पइना है कि इनकी रचना में तल्लीनता का अभाप साई, अर्थात् सूर, तुलता, येव और भूपय की भांति सहिदानंद में मन कर दास आपे से दूर की मद्द होते। इनमें एक अह भी।