पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद २.pdf/३३४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

रसिक अज़ी] घत्तकृत प्रकरण । ५६५ कई पानी जे बुधि धाम । उतरयो सना मरका नाम !! १ ॥ करी वाई नाहिन शम्।। घेहि है कि घन स्याम ॥ कई पसीना युत अनुराग । बाजी तर्रत कि चूझयो राग ।। २।। बैठे निठुर पिया बिनु ल। | पुछि तिय बैठी गहि रास ।। कई पत्रानो जैद गहि मान! बैल न यो कुदी गैगन ॥ ३ ॥ नाम-(०४६) रसिक अली । प्रत्य-(१) मिथिलाविइए, (२) अष्टयाम (७१ पद कवित्त आदि), (३) इंकारी। समय–१८१८ । | विवरण-मिथिला बिहार में रामचन्द्रजी का जनकपुर में आरा- मन और इनकी शोभा का वर्णन विविध आन्दी में हैं। इसमें कुल ४२३ छन्द हैं । कविता प्रशंखनीय है। इनकी गडना साधारण श्रेणी में है। हमें प्रथम दोन ग्रन्थ दरपीर छतरपुर में देखने के मिले। माई घन मरज़न ऊगत सुहाई। धन प्रमोद भारन की तेरा चई दिति अन इरिआई । रिम झिम बरसत दमकत दामिन बन धियारी छाई ।।