पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद २.pdf/३४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

मिषन्धपिगैः । [सं० ११८ दी ऋतु छाई छाजे पाटो छवि देसन की माप घी का कई इन्दिर तरसत ६॥ इन्दौने संस्कृत की भी अच्छी पगा की है। येवाधिष्ठसा नामक इमका एक पार अन् सेवा में मिठाई ।ये काइशौ-यासी में। नाम--(३८७) गोधुरीदास । अन्य—(१) धीराघारमय थिधारी माधुरी, (२) घुसीवट विलास माधुरी,१) उत्कंठा माधुरी, (४) घृन्दायन केहि मधुरी (५) दानमाधुरी, (६) मानमाधुरी, (७) पृन्दावविहार माधुरी, (८) मानटीला । कविता-काल-१६८७t विपर-मधुसुदनदसि । । इस कृचि ने इन छोटे छोटे ग्रन्थों में कृपयशान किया है। षदरहर ! जुट प्रेम के दान हित किया जुगुल अचार ।। आप मन आयरन करि जग की विस्तार ।। दस दिन तिनकी कृपा मनाऊँ। नत्र वृन्दावन यादि पाऊँ । यि प्यारी की लीला गाऊँ। जुगुल झपट लखि बलि जाऊँ | (२८८) सुन्दर ब्राह्मण ग्यालियर पास इज घादशाह, के दरबार में थे। ६ नै इन्हें प्रथम सचिराय की और फिर महा कविराय की उपाधि दी । इन्दोंने संपद् १६८८ में सुन्दर