पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद २.pdf/४००

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गएपीठाम ] उत्तराखंड़त मरण । वन र के गुमानी ! कई घनंजय से यद् पानी । पूर्व सभामधि तुम हे पारय । ग्रा कीन्हे से करटु यथारय ।। कई फूष्ण और सुन हित धानी। कहत भयी पारध अभिमानी । सात औद्म परवद्ध मधि एलिए | भीम के सन्मुख हे लिए | | दुई पक वान से मारी । रथ नै वैज्ञं भूमि पर डारी ॥ | स्वर सुन प्य कि चर घारे । रथ से गर्थे भीष्म के धैरे ॥ त पम यहु शर है छन में ! हुने पाथै अरु प्रभु के रान में हैं। फिरि घटु सहस वाण परि इरि फै। सरय पारथदि छादित करिये ॥ | पाँव फे जे भट फिरि अपि । रहै हिन्ई फिरि मार भगाये ।। घार सय मारि मम पधप । देहिं छाये परि ॐ श्ध ३ ।। जा गि पारश चान बिदा । ग्गिं भीपम घाटु भट मा३॥ | भीषम की गुप्ता ऋग्नि पेसो । पारथ फी मृदुता छवि सेसीं । मन में नित भये यदुनयः। नहिं को भीमदतीसगलायफ॥ अदि भौजा वीर जन जैना ! तिहि सर्व पाव की सेना ।। भीष्म द्रोण अदिक जे रन हैं । जिन्हें अपय अथ दम यहिं छनमें॥ इमि कहि चक्र पानि ६ छन् । फरि भ्रमित ऊरघ भुज रिन् । रथ नै कूदि सिइ सम गरवत ! चले भी दम १ घरन धरखत ॥ प्रभु के पारिश भक्ति वपु सरसैा । लसे चक तई बारिज परसेर म रिसरवि . यिकसित र दिन में। निरखि चौतई धीज़ किन हैं । जानि कुरुन का क्षय सन्न राज्ञा । नयँ प्रफपित सहित समाज्ञा ॥ पुरापसिंह अनुपम छवि बन | फुग्यचन्द्र कहूँ नजदिलि प्रावत। इग्नि भोपाम करे, यदल सरासन । फरत भएर से सभासन ॥५॥