पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद २.pdf/५१२

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लकदास] उत्तरालंकृत प्रकरण । ६२३ विवरण-इन्होने अपनी रचना में श्रीकृष्णसन्मान्धी ऋगार फयिता विपतया की है, परन्तु एफ ग्रन्थ में गैरी घाई की भी महिमा लिई है । इन्होंने इन्भंग भी किये हैं। इनकी गणना हीन 'गी में है। हरि गुन १ गल पल बलि जाऊँ। तिन किरपा है बरि गुन गाऊँ ॥ थी नारीदास महराज | हरि भक्तन । यि सिरताज ॥

  • प नगर के राज साहाय 1 वृन्दावन दम्पति मन लाय ॥

अड़ न ज्यवहार कि अाला । दृपते' चरनन कीन्हो चासः ॥ इश्क घमन के फूल सय रहे जहां तहँ फूल । में सरबर की कर सकें। वह मैरी हैं भूल | इक चमन की चमन ।यों अकास में धन्द । में पटीज़ (हि) कहत ही दोन दोन मतिमन्द ।। (११२७) तलकदास । राजा इन्दविक्रमसिहा तालुकदार इजा ज़िलर लान घे पुस्तकालय से दारकी महाद्ध झलकदास लफज्यान मामय २६४ मई प्रों में घी रीति से लिझा हुआ एक बड़ा प्रन्थ प्राप्त हुआ। इसमें कधि के चिराय में सिंचा नाम ॐ भरि कुछ भी नही लिखा है मेर। ग्रन्थ पनने का समय दिया है। राजा सादचे के पास सबत् १९३१ की लि दुई प्रति है। इस कवि व नाम दिराथसि इसराज में भी नदी लिया है। इनका ननि में कहीं भी नहीं मिला, केबल येत फर ने कई कचिों द्वारा इनकी नन्दा की है, जिसका पक पद नीचें लिप्ता ज्ञाता है:-