पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद २.pdf/५२४

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||५| | ३५५६, ६॥ २६,1 साख्य बुद्धि ताला कही कत येाग बुधि तैरहे। ता बुध के साग ते रवै न कर्मी महि ॥ ३ ॥ फर्म करे बिन कमिन ताकेा हाय न नास । बाप किट हू ध य काटत भन्न भय पास ॥ ४ ॥ चाः जु निश्चयवंत के पके हैं तू जान्।ि जिनके निधये नानै विर्ताह युद्धि बहुमान ॥ ५ ॥ पाता हरि बल्लभ किया भाषा कू प्रसाद । भये। प्रभम अध्याय यद अरजुन किया धिपाद ।। ६ ।। (११३७) वृन्दावन जी । इनको जन्म सन् १८४८ में बालू घमचन्द्र की जेन के यहाँ हाम्रा जळे के दारा नामक आम में हुआ था। सवत् १८६० में ये काशी में रहने लगे । सन् १९०५ तुक इन्होंने ग्रन्थ खाये, परन्तु इसके पीछे इनका दरले अविदित है। इनका मृत्युका १९१५ के लगभग है। इनका स्वामी जी की रामयण की भांति जैतरामायण वनाने की घड़ी चाह थी, पर यह अन्य कुछ कारण से ये घना न सके। इन्होंने अपने पुत्र अजितदास से उसे बनाने फा कहा गैर उन्होंने उसके ७ स नाये भी, पर पीछे उनका भी शरीरपात हो गया । अव उनके पुत्र हरिदास ससे समाप्त करना चाहते है। | पृन्दाधन जी ने १५ वर्ष की अवस्था में ही काव्य-रचना 4. प्रारम्भ कर दी थी । इन्दने प्रपचमसार ( १९०५ में), तीस धावीस पाठ (१८७६ में), चाचीली पठ( १८६५ में ), सुशतक