स० १६१४ के ग़दर में इनके ६ भाई मारे
गए । पश्चात यह देशाटन करते-करते काशी श्रा, श्रीजयशंकर प्रसाद के बाबा के मुनीम हो, वहीं स्थायी हो गए। फ़ारसी के भी ज्ञाता थे। काशी-कवि-मंडल की बहुसंख्यक समस्या-पूर्तियाँ किया करते थे। हिंदी-शब्द-सागर के संपादन-विभाग में कुछ दिन तक रहे ।। इनके शिष्य पं० छलूलाल पाठक को कुछ इनके छंद मिले थे, वे ही रहगए हैं। आप तोपनिधि के शिष्य एवं उन्हीं की कोटि के सुकवि थे।}}
सीताराम लखन बिलोकि ग्रास-नारी-जर
मोहित है अढ़े सबै एकटक लाय केेैै,
तिन मैं सयानी नारी अरज गुजारी आनि
जनक-दुलारी आगे सीसन नवाय कै;
काकी हो पियारी दोऊ राजहंस वंसन मैं
'बेनी द्विज' दीजिए दया सों ससुझाय केै,
लाजन लजाय अकुलाय तबै सैनन सों
दीन्हों है लखाय राम सुरि मुसुकाय कै।
लोल-लोल कलित कपोलन पै वारौं चंद्र
मोतिन की माला वारौं दंत झलकन पै,
'बेनी द्विज' खंजन चकोर चारौं नैनन पै
नेजन की नोकैं वारि डारौं पलकन पै;
अधर-ललाई पै ललाई वारौं मानिक की
वारौं मन धन हूँ बुलाक हलकन पै;
गोलन के गोल वारि डारौं नाग छौनन के
बाँकुरे बिहारी की अमोल अलकन पै।{poem end }}