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मिश्रबंधु

शेष कविगण ३ २ १५६७ के बीच में दो कविः नए मिले हैं, सो उनके नंबर १५६६ कर दिए गए हैं। अब इन नवीन नंबरों के बीच में भी नए कवि मिलते जाते हैं, सो ५१६६.११६६ श्रादि के समान लंवर डालने पड़ते हैं। इसमें गुत्थलपन श्रा जाता है, और समझ पड़ता है कि जितनी सुविधा पुराने नंबरों के इचालों से होगी, उससे अधिक असुविधा इन नए बटेवाले नंबरों के लिखने में हो रही है । चौथे खंड में प्राचीन कवि बहुत थोड़े हैं तथा नवीन अधिक, सो और भी भद्दापन आवेगा । फिर ग्रंथ में पूरे कवि कितने हैं, सो बिना बहुत कुछ जोड़े-जाढ़े पता नहीं लगता । एक यह सी बात है कि किसी महाकवि को पूरा नंबर न देकर किसी अन्य कवि के नंबर के वटे में लिखना उसकी अनावश्यक अधीनता-सी समझ पड़ती है, जो अनुचित है। प्रथम खंड में नंबर २७७ हैं, किंतु उसमें कवि ३३६ ससिविष्ट है। इसी प्रकार दूसरे खंड में नंबर २७८ से १३२१ तक हैं, किंतु कवि १३०६ हैं। तृतीय खंड में नंबर १३२२ से २५४६ तक होकर भी रचयिता १५६५ हैं। फल यह है कि प्रथम तीन खंडों में नंबर २५४६ तथा रचयिता ३१०६ है । चतुर्थ खंड के ३८वें अध्याय में रवयित्तागण प्रथम तील खंडों के ही होने से उनके नंबर भी उचित स्थानानुसार बटों से दे दिए गए हैं, किंतु गड़बड़ मिटाने को न नंबर भी दर्गा दिए गए हैं । ३९वें अध्याय से केवल नए नंबर दिर राहुल सांकृतायन का पत्र लूहिपा सहाराज धर्मपाल (७६९-८०६) के कायस्थ थे, यह सस्क्य के धुं की पोथी ज (अर्थात् सलम) के पृष्ठ २४३ क में लाफ लिखा है। वहीं यह भी लिखा है कि रावरपा बूमते हुए वारेंद्र में धर्मपाल के महल में भिक्षा के लिये गए थे, वहीं मुलाकात