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मिश्रबंधु
    मिश्रबंधु-विनोद                   १४४

रचनाओं में कोई भारी मुख्यता नहीं है । समाज-सुधार पर बहुतों ने कथन किए हैं,किंतु इस काल किसी ऐसे लेखक का नाम नहीं आता,जो मुख्यतया समाज-सुधारक कहा जावे । इन दिनों के देश-प्रेमियों में सबसे पहले स्वामी दयानंद सरस्वती तथा भारतेंदुजी के नाम पाते हैं। स्वामीजी का आर्यसमाज-धर्म ही देश-प्रेम का भारी समर्थक है । उनके उपदेशों का ध्येय मुख्यतया समाज-संशोधन द्वारा देश-प्रेम-वद्धर्न था । भारतेंदुजी पय-रचयिताओं में सबसे प्रथम देश-भक्त थे। इनके नाटक-प्रेमयोगिनी, चंद्रावली,नीलदेवी, भारत-दुर्दशा और सत्यहरिश्चंद्र उत्कृष्ट हैं । इनमें सत्यहरिश्चंद्र में पूर्ण मौलिकता नहीं है, तथा चंद्रावली उच्च साहित्यिक छटा रखते हुए भी रंग-मंच के अयोग्य है। फिर भी साहित्य की दृष्टि से यह स्तुत्य है। शेष तीनो नाटक बढ़िया हैं ही । इन पाँचो ग्रंथों की गणना स्थायी साहित्य में हो सकती है। इनमें से किसी-किसी में जातीयता और अन्यों में प्रेम की पुट बहुत ही शलाघ्य हैं । अभी तक सिवा जयशंकरप्रसादजी के और कोई हिंदी-नाटककार भारतेंदु के बराबर नहीं हो पाया है। देश-भक्ति में नूतन परिपाटी-काल में माधवराव सप्रे ( १९४५),रामदास गौड़ (१९४८), अर्जुनलाल सेठी (१९५०), सचेंडी-वाले ठाकुर गदाधरसिंह ( १९५१), रामनाथ ज्योतिषी (१९५१),नंदकुमार शर्मा ( १९५८ ) तथा देवीप्रसाद शुक्ल (१९५६) के नाम गिनाए जा सकते हैं । इनमें से कई महाशय राजनीतिक कार्य-कर्ता भी हैं और उत्कृष्ट गद्य-लेखक तो सब हैं । साहित्यिक दृष्टि से हम ठाकुर गदाधरसिंहजी के गद्य को बहुत ही ऊँची श्रेणी का मानते हैं । इनके गध में देश-प्रेम की मात्रा लबालब झलक रही है,और आरोचन सभी स्थानों पर प्रस्तुत है। श्रापका प्रथम ग्रंथ"चीन में तेरह मास'बहुत ही स्तुत्य है । इसके पढ़ने में कभी जी नहीं