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मिश्रबंधु
         मिश्रबंधु-विनोद              १५२

कृष्ण का भाग उन्हें न दिया, इसी पर भगवान् ने मानसिक शाप दिया कि जितने चने उन्होंने भेजा चाबे, उनमें से एक-एक चने के लिये उन्हें जब एक-एक दिन का उपवास हो चुकेगा, तभी उनके इस बाल्य काल के पाप का प्रायश्चित्त होगा;नहीं तो सुदामाजी को बुढ़ापे तक भारी कष्ट क्यों सहना पड़ता, क्योंकि पहले भी तो भगवान उन्हें सुखी कर सकते थे। उन्होंने भगवान श्री- कृष्ण का प्रभाव तो अक्षुण्ण दिखला दिया, किंतु इतना न सोचा कि एक-एक चने के लिये अपने मित्र तथा ब्राह्मण को एक-एक उपवास का दंड देना कितना क्रूर कर्म है ? कवियों को भावों के सव पक्षों पर विचार कर लेना चाहिए, यह नहीं कि सूर्ख-मोहिनी शक्ति के सहारे मुग़ की एक ही टाँग कह देनी।

कहने का प्रयोजन यह है कि पौराणिक साहित्य तथा धर्म को हमारे लेखकों द्वारा उचित मान नहीं मिला है। पहले तो कतिपय प्राचीन व्यासों ने ही उसमें मूर्ख-मोहिनी कला का उचित से बहुत अधिक सहारा लेकर असंभव कथनों की खानि बना डाला, और पीछे से हमारे हिंदी-लेखकों ने उन असंभव कथनों की बानि को शिथिल करने के स्थान पर और भी दृढ़ किया, जिसका फल यह हुआ कि हमारी अपढ़ जनता असत्य उपदेश पाकर केवल करामात-प्रदर्शन को धार्मिक महत्ता का मूल-मंत्र मान बैठी है। जो लेखक कुंभकर्ण की मूछ को चार योजन से एक तिल कम बतलावे, वह ईसाई है। यदि राम-राज्य का समय ग्यारह हजार वर्षों से एक दिन कम कह दिया जाये, तो वक्रा सनातनधर्मी नहीं हो सकता । वेद पुराणों से बहुत प्राचीन हैं। जब वे ही 'जीवेम शरदः शतम्' का कथन करते हैं, और अथर्ववेद तथा परम प्राचीन उपनिषत् ११६ वर्ष की आयु को बहुत भारी मानते हैं, तब पुराणों के ऐसे अमान्य भाषणों पर ज़ोर देना बुद्धिमानी नहीं है। फिर भी अब तक आर्यसमाजी लेखकों के अतिरिक्त