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मिश्रबंधु
           मिश्रबंधु-विनोद            १५६

समाज पर कैसे ग्रंथों का कैसा प्रभाव पड़ता है, इस काम-काजू जंते से वे खींची हुई होती हैं। कंपनियों द्वारा नाटके खेली जाने से उनके रचयिताओं की कीर्ति भी बहुत जल्द फैलती है, जिससे उनका अधिकाधिक प्रोत्साहन एवं लाभ भी होता है। इन कारणों से बंगाल का नाटक-विभाग अच्छी उन्नति कर चुका है, किंतु हमारा अनुभव की जाँच से पृथक् रहकर खयाली संसार का ही निवासी है। फिर यहाँ की जनता उपर्युक्ल अनुचित उपदेशों के कारण केवल मूर्ख-मोहिनी विद्या को पसंद कर पाती है, जिससे वेताब आदि हमारे नाटक-रचयिता उसी प्रकार के ग्रंथ बनाते हैं। उन बेचारों का इसमें कम दोष है और समाज का अधिक । फिर भी मूर्ख-मोहिनी विद्या के प्रवर्द्धक होने के कारण वे लोग कुछ समालोचकों के कोप-भाजन बने हुए हैं । ज्यों-ज्यों जनता की रुचि ऊँची होती जायगी, और हमारे उपदेशक तथा लेखकगण अपने भार का अनुभव करेंगे, त्यों-त्यों हमारा नाटकीय विभाग भी उच्चता ग्रहण करेगा । भाषाओ की यह दशा है कि बंगाल में सांस्कृत शब्द का बाहुल्य है तथा पंजाब में फ़ारसी-शब्दों का । बंगाल से पंजाब तक ज्यों-ज्यों पच्छिम जाते जाइए, त्यों-त्यों सांस्कृत शब्दों की कमी तथा फारसी का आधिक्य होता जाता है। जैसे शब्द लखनऊ के समीप साधारणतया बोले तथा समझे जाते हैं, वैसों का निराकरण हम लोग संस्कृत पर प्रेम रखने के कारण से ही करते हैं, और कभी-कभी साधारण फारसी-शब्द लिख भी जाते हैं, किंतु पटने के निकट वह शब्द निराकरण कृत्रिस न होकर एक परम साधारण बोल-चाल का फल है। वहाँ फ़ारसी-गर्भित शब्द लोग समझ ही नहीं पाते । इसी प्रकार इधर तथा और पच्छिम की ओर लोग साधारण समझे जानेवाले संस्कृत-गर्भित शब्द नहीं समझ पाते । अतएव भाषा में संस्कृत अथवा फारसी, दोनो के गूढ शब्द न आने चाहिए, जिसमें