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मिश्रबंधु

मिमबंधु-विनोद इस निरीक्षिका-शक्ति को कुछ बढ़ाया। इधर श्राफर भारतेंदु-काल में बदरीनारायण चौधरी ने इसका कुछ काम उठाया, किंतु वह गौरव न पा सका । पहावीरप्रसाद द्विवेदी ने लाला सीताराम की एक पुस्तिका की कहने को तो समालोचना लिखी, किंतु वास्तव में वह समालोचना न होकर व्याकरण-संबंधी दोप-प्रदर्शन-मात्र था, सो भी अशिष्ट भाषा में । द्विवेदीजीकृत कालिदास की निरंजशता बहुत करके व्याकरण-संबंधी और कहीं-कहीं शाब्दिक प्रयोगों पर विचार का निबंध-भान है। उनकी नैषध-चरित चर्चा में समालोचना का कुछ रूप पाया है, किंतु वह भी सर्वाग-पूर्ण नहीं है, क्योंकि वह भाषादि बाहरी बातों पर बहुत करके सीमित है, और भाव तक नहीं पहुँचता । हम लोगों ने हिंदी-नवरत्न तथा मिश्रबंधु-विनोद में बहुत-से कवियों की पृथक्-पृथक समालोचनाएँ कुछ विस्तृत रूप में लिखी, तथा केवल सम्मति न देकर, कवियों की रचनाओं से उदाहरण सामने रखकर अपने कथनों को पुष्ट करने का प्रयत्न किया । अनंतर श्यास- सुंदरदास ने भी हिंदी-भाषा और साहित्य-नामक ग्रंथ में साहित्य- मर्मज्ञों की रचनाओं पर आलोचनाएँ लिखीं, जिनमें कहीं-कहीं मतभेद संभव है, किंतु अधिकतर स्थानों पर निष्पक्ष भाद से तथा शुद्ध ससालोचना की गई है । इनमें विचारों के आधार-स्वरूप प्रसाण नहीं दिए गए हैं, जिससे सर्वमान्य कथन तो ठीक बैठते हैं, किंतु नवीन विचार निराधार से हो जाते हैं । पंडित पद्मसिंह शर्मा ने बिहारी की भली-दुरी कैसी भी प्रशंसा करने का बीड़ा ही उठाया था। कोई भी प्रमाण कैसा भी शिथिल हो, किंतु शर्माजी के लिये देव कवि को निध तथा बिहारी को स्तुत्य ठहराने को वह अलम् होता था । बिहारी पर जो आपने बड़ा ग्रंथ प्रचुर परिश्रम से बनाया, वह श्लाघ्य होने पर भी अनुचित विचारों के भारी समारोह से बहुत कुछ दूषित है । शर्माजी प्रबल लेखक तथा श्रमकर्ता आलोचक थे, i