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मिश्रबंधु

मिश्रबंधु-विनोद सं० १९६१ आनंद की कमी से कमनीयता की तो कहना ही क्या है, साधारण. आरोचन भी नहीं रहता । फिर प्रायः सभी छायावादी पद्यकार- गण कथा-प्रसंगादि छोड़कर केवल मुक्तकों पर अपनी रचनाओं को सीमित रखते हैं। ऐसे प्रथों में परमोत्कृष्ट रचना के अभाव में आरोचन की कमी स्वभावशः आ जाती है। कविताओं की जाँच में दो मुख्य प्रश्न यही रहते हैं कि कथा कथन योग्य है या नहीं, तथा वह सुचारुरूपेण कही कई है या नहीं ? मुक्तकों में बहुत करके कथा होती ही नहीं, सो कथानक के सुगठन एव विविध परिस्थितियों के यथायोग्य वर्णन से जो अानंद प्राता है, वह मुक्तक-मूलक रचना में रहता ही नहीं। एक प्रकार से कोरा काव्य रह जाता है, जो परमोत्कृष्ट न होने से रोचक नहीं रहता। फिर ऐसे कविगण जहाँ कहीं छायावादात्मिका कथा भी कहते हैं, वहाँ प्रायः प्राध्या- त्मिक अथवा प्राकृतिक विचारों को कथा के रूप में चलाते हैं, जिनमें कामना, संध्या, छाया श्रादि पान रहते हैं, जिनके कथनों, कर्मों आदि से प्राध्यात्मिक, प्राकृतिक आदि भाव तो दृढ़ होते हैं, किंतु कथा बिल्कुल डूबी हुई रहती है। जयशंकर प्रसाद का छायावाद उपर्युक्त विचारों से उत्कृष्टता के सोपान तक नहीं पहुंच पाता । उनके जो सुख्य ग्रंथ हैं, उनमें ऐतिहासिकता की प्रधानता है, और छायावाद नहीं के बराबर है। यदि प्रसादजी केवल छायावादी होते, तो हम उन्हें बहुत ही साधारण कवि मानते । मोहनलाल महतो की कविता कुछ उस्कृष्ट है, किंतु बहुत ऊँची श्रेणी को नहीं पहुँचती। सुमित्रानंदन पंत ने केवल पल्लव में साहित्यिक गौरव का चमकता हुआ उदाहरण दिखलाया है। इसमें है तो मुक्तकों का ही रूप, किंतु एक-एक विषय पर वर्णन कुछ बड़े-बड़े भी हैं। इनमें केवल छायावाद नहीं है, चरन इतर साहित्य के साथ कुछ-कुछ वह भी मिल गया है। यदि