खण्ड १] शाङ्करभाष्यार्थ गृह्यते । तथा वैदिकेनाग्निहोत्रादि- यह तपसे भी ग्रहण नहीं किया जाता और न जिसका महत्त्व कर्मणा प्रसिद्धमहत्त्वेनापि न सुप्रसिद्ध है उस अग्निहोत्रादि वैदिक गृह्यते । किं पुनस्तस्य ग्रहणे कर्मसे ही गृहीत होता है। तो फिर उसके ग्रहण करनेमें क्या साधन माधनमित्याह- है ? इसपर कहते हैं- ज्ञानप्रसादेन । आत्मावबोधन ज्ञान (ज्ञानकी साधनभूता ममर्थमपि स्वभावन सर्वप्राणिनां बुद्धि ) के प्रसादसे [ उसका ग्रहण हो सकता है । सम्पूर्ण प्राणियोंका ज्ञानं बाद्यविषयरागादिदोषकलु- ज्ञान स्वभावसे आत्मबोध करानेमें समर्थ होनेपर भी, बाद्य विषयोंके षितमप्रमन्नमशुद्धं सन्नावबोधयति गगादि दोघसे कलुषित-अप्रसन्न नित्यं संनिहितमप्यात्मतत्त्वं मला- यानी अशुद्ध हो जानेके कारण उस आत्मतत्त्वका, सर्वदा समीपस्थ वनद्धमिवादर्शनम्, विलुलितमिव होनेपर भी, मलसे ढके हुए दर्पण सलिलम् । तद्यदेन्द्रियविषयसंसर्ग- तथा चञ्चल जलके समान बोध नहीं करा सकता। जिस समय जनितरागादिमलकालुष्यापनय- इन्द्रिय और विषयोंके संसर्गसे होने- वाले रागादि दोपरूप मलके दूर नादादर्शसलिलादिवत्प्रसादितं हो जानेपर दर्पण या जल आदिके स्वच्छं शान्तमवतिष्ठते तदा समान चित्त प्रसन्न-स्वच्छ अर्थात् शान्तभावसे स्थित हो जाता है ज्ञानस्य प्रसादः स्यात् । उस समय ज्ञानका प्रसाद होता है। तेन ज्ञानप्रसादेन विशुद्ध क्योंकि ज्ञानप्रसादसे सच्चो विशुद्धान्तःकरणो योग्यो विशुद्धसत्त्व यानी शुद्धचित्त हुआ पुरुष ब्रह्मका साक्षात्कार करने योग्य ब्रह्म द्रष्टुं यस्मात्ततस्तस्मात्तु तमा- ' होता है इसलिये तब वह ध्यान त्मानं पश्यते पश्यत्युपलभते करके अर्थात् सत्यादिसाधनसम्पन्न उस
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