१०० मुण्डकोपनिषद् [ मुण्डक ३ ध्यान- निष्कलं सर्वावयवभेदवर्जितं होकर इन्द्रियोंका निरोध कर -चिन्तन ध्यायमानः करता हुआ उस निष्कल यानी वानुपसंहृतकरण एकाग्रेण मनसा सम्पूर्ण अवयवभेदसे रहित आत्माको ध्यायमानश्चिन्तयन् ॥८॥ देखता -उपलब्ध करता है ॥८॥ सत्यादिसाधन- एकाग्रचित्तसे शरीरमें इन्द्रियरूपसे अनुप्रविष्ट हुए आत्माका चित्तशुद्धिद्वारा साक्षात्कार यमात्मानमेवं पश्यति जिस आत्माको साधक इस प्रकार देखता है- एषोऽणुरात्मा चेतसा वेदितव्यो यस्मिन्प्राणः पञ्चधा संविवेश । प्राणैश्चित्तं सर्वमोतं प्रजानां यस्मिन्विशुद्धे विभवत्येष आत्मा ॥ ६ ॥ वह सूक्ष्म आत्मा, जिस [ शरीर ] में पाँच प्रकारसे प्राण प्रविष्ट है उस शरीरके भीतर ही विशुद्ध विज्ञानद्वारा जानने योग्य है । उससे इन्द्रियोंद्वारा प्रजावर्गके सम्पूर्ण चित्त व्याप्त हैं, जिसके शुद्ध हो जानेपर यह आत्मस्वरूपसे प्रकाशित होने लगता है ॥९॥ एषोऽणुः सूक्ष्मश्चेतसा वह अणु-सूक्ष्म आत्मा चित्त विशुद्धज्ञानेन केवलेन वेदितव्यः। यानी केवल विशुद्ध ज्ञानसे जानने योग्य है। वह कहाँ जानने योग्य क्कासौ ? यस्मिञ्शरीरे प्राणो जिस शरीरमें प्राणवायु, वायुः पश्चधा प्राणापानादिभेदेन प्राण-अपान आदि भेदसे पाँच मंविवेश सम्यकप्रविष्टस्तस्मिन्नेव प्रकारका होकर सम्यक् रीतिसे प्रविष्ट हो रहा है उसी शरीरमें शरीरे हृदये चेतसा ज्ञेय हृदयके भीतर यह चित्तद्वारा जानने इत्यर्थः। योग्य है-ऐसा इसका तात्पर्य है।
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