खण्ड २]] शाङ्करभाष्यार्थ १११ विज्ञेयः मोर्थः सुनिश्चितो येषां है । वह अर्थ जिन्हें अच्छी तरह निश्चित हो गया है वे 'वेदान्त- ते बंदान्तविज्ञानसुनिश्चितार्थाः । विज्ञानसुनिश्चितार्थ' कहलाते हैं । ते च संन्यासयोगात्सर्वकर्मपरि- वे संन्यासयोगसे-सर्वकर्मपरित्याग- न्यागलक्षणयोगात्केवलब्रह्मनिष्ठा- रूप योगसे अर्थात् केवल ब्रह्मनिष्ठा- स्वरूप योगसे यत्न करनेवाले और वरूपाद्योगाद्यतयो यतनशीलाः शुद्धसत्व-संन्यासयोगसे जिनका शुद्धसत्त्वाः शुद्धं सत्त्वं येषां सत्त्व (चित्त) शुद्ध हो गया है ऐसे वे संन्यासयोगात्ते शुद्धसत्त्वाः। ते शुद्धचित्त पुरुष ब्रह्मलोकोंमें परामृत- परम अमृत यानी अमरणधर्मा ब्रह्म ब्रह्मलोकेपु-संसारिणां ये मरण- ही जिनका आत्मस्वरूप है ऐसे कालास्तेऽपरान्तास्तानपेक्ष्य मुमु- जीवित अवस्थामें ही परामृत यानी सूणां संमागवसाने देहपरित्याग- ब्रह्मभूत होकर दीपनिर्वाण अथवा कालः परान्तकालस्तस्मिन्परा घटके फूटनेपर घटाकाशके समान न्तकाले माधकानां बहुत्वाद् ब्रह्मैव जाते हैं। वे सब परि अर्थात् परिमुक्त यानी निवृत्तिको प्राप्त हो लोको ब्रह्मलोक एकोऽप्यनेकवद् सब ओरसे मुक्त हो जाते हैं। दृश्यने प्राप्यते वा, अतो बहुवचनं किसी अन्य गन्तव्य देशान्तरको अपेक्षा नहीं करते । संसारी पुरुषों- ब्रह्मलोकेष्विति ब्रह्मणीत्यर्थः- के जो अन्तकाल होते हैं वे परामृताः परममृतममरणधर्मकं 'अपरान्तकाल' हैं उनकी अपेक्षा ब्रह्मात्मभूतं येषां ते परा- मुमुक्षुओंके संसारका अन्त हो जानेपर उनका जो देहपरित्याग- मृता जीवन्त एव ब्रह्मभूताः का समय है वह 'परान्तकाल' है । परामृताः सन्तः परिमुच्यन्ति परि उस परान्तकालमें वे ब्रह्मलोकोंमें- समन्तात्प्रदीपनिर्वाणवद् घटा- बहुत-से साधक कारण
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