पृष्ठ:मुण्डकोपनिषद्.djvu/१२०

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मुण्डकोपनिषद् [ मुण्डक ३ 64 काशवञ्च निवृत्तिमुपयान्ति । ब्रह्मलोक यानी ब्रह्मस्वरूप लोक एक परिमुच्यन्ति परि समन्तान्मुच्यन्ते होने पर भी अनेकवत् देग्वा और प्राप्त किया जाता है। इसीलिये 'ब्रह्मलोकेषु' सर्वे न देशान्तरं गन्तव्य- इस पदमें बहुवचनका प्रयोग हुआ है, मपेक्षन्ते । अतः 'ब्रह्मलोकेषु' का अर्थ है ब्रह्ममे । "शकुनीनामिवाकाशे जल "जिस प्रकार आकाशमें पक्षियोंक और जलमे जलचर जीवके पैर (चरण- वारिचरस्य च । पदं यथा न चिह्न) दिखायी नही देते उसी प्रकार दृश्येत तथा ज्ञानवतां गतिः" ज्ञानियोको गति नही जानी जाती" "[मुमुक्षु लोग ] संसारमार्गसे पार ( महा० शा० २३९ । २४ )। होनकी इच्छासे अनध्वग ( संसार- "अनध्धगा अध्वसु पारयिष्णव, मार्गमें विचरण न करनेवाले ) होते हैं ।" इत्यादि श्रुति-स्मृतियोंमे भी इति श्रुतिस्मृतिभ्यः। यही प्रमाणित होता है। देशपरिच्छिन्ना हि गतिः संसार परिच्छिन्न सावनसे विषयेव, परिच्छिन्नमाधनमाध्य- होनेके कारण संसारसम्बन्धिनी गति देशपरिच्छिन्ना ही होती है। त्वात् । ब्रह्म तु समस्तत्वान्न देश- किन्तु ब्रह्म सर्वरूप होनेके कारण परिच्छेदेन गन्तव्यम् । यदि हि किसी देशपरिच्छेदसे प्राप्तव्य नही देशपरिच्छिन्नं ब्रह्म स्यान्मृतद्रव्य- है। यदि ब्रह्म देशपरिच्छिन्न हो तो मृतद्रव्यके समान आदि-अन्तवान्, वदाद्यन्तवदन्याश्रितं सावयव- पराश्रित, सावयव, अनित्य और मनित्यं कृतकं च स्यात् । न कृतक सिद्ध हो जायगा । किन्तु त्वेवंविधं ब्रह्म भवितुमर्हति ।। ब्रह्म ऐसा हो नहीं सकता। अतः । उसकी प्राप्ति भी देशपरिच्छिन्ना अतम्तत्प्राप्तिश्च नैव देशपरिच्छिन्ना नही हो सकती; इसके सिवा भवितुयुक्ता । अपि चाविद्यादि- ब्रह्मवेत्ता लोग अविद्यादि-संसार- साव्य