पृष्ठ:मुण्डकोपनिषद्.djvu/२०

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१२ मुण्डकोपनिषद् [मुण्डक १ विषये हि विदिते न किञ्चित्तवतो विषयमें जान लेनेपर तो तत्त्वतः विदितं स्यादिति । निराकृत्य कुछ भी नहीं जाना जाता, क्योंकि यह नियम है कि पहले पूर्वपक्षका हि पूर्वपक्षं पश्चासिद्धान्तो वक्तव्यो खण्डन कर पीछे सिद्धान्त कहा भवतीति न्यायात् ॥ ४॥ जाता है' ॥ ४ ॥ परा और अपरा विद्याका स्वरूप तत्रापरा ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्ववेदः शिक्षा कल्पो व्याकरणं निरुक्तं छन्दो ज्योतिष मिति । अथ परा यया तदक्षरमधिगम्यते ॥ ५॥ उनमें ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द और ज्योतिष-यह अपरा है तथा जिससे उस अक्षर परमात्माका ज्ञान होता है वह परा नत्र कापरेत्युच्यते-ऋग्वदो उनमें अपरा विद्या कौन-सी है, यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्ववेद इत्यते सो बतलाते हैं । ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद-ये चार वेद चत्वारो वंदाः शिक्षा कल्पो तथा शिक्षा, कल्प, व्याकरण, व्याकरणं निरुक्तं छन्दो ज्योतिष- निरुक्त, छन्द और ज्योतिष-ये मित्यङ्गानि षडेषापग विद्या । छः वेदाङ्ग अपरा विद्या कहे जाते हैं। अथेदानीमियं परा विद्या अब यह परा विद्या बतलायी जाती है, जिससे आगे (छठे मन्त्रमें) उच्यते यया तद्वक्ष्यमाणविशेषणम् कहे जानेवाले विशेषणोंसे युक्त उस अक्षरका अधिगम अर्थात् अक्षरमधिगम्यते प्राप्यते अधि- प्राप्ति होती है, क्योंकि 'अधि'पूर्वक