२८ मुण्डकोपनिषद् [मुण्डक १ . अविशिष्टत्वात् । अपौर्णमासं की दर्शसे समानता है। [ अतः जिनका अग्निहोत्र ] अपौर्णमास- पौर्णमासकर्मवर्जितम्, अचातु- पौर्णमास कमसे रहित, अचा- तुर्मास्य- चातुर्मास्य कर्मसे रहित, मास्यं चातुर्मास्यकर्मवर्जितम् । अनाग्रयण-शरदादि ऋतुओंमें [ नवीन अन्नसे ] किया जानेवाला अनाग्रयणमाग्रयणं शरदादि- जो आग्रयण कर्म है वह जिस कर्तव्यं तच्च न क्रियते यस्य, ( अग्निहोत्र ) का नहीं किया जाता वह अनाग्रयण है, तथा अतिथि- तथातिथिवर्जितं चातिथिपूजनं वर्जित-जिसमें नित्यप्रति अतिथि- पूजन नहीं किया गया, ऐसा होता चाहन्यहन्यक्रियमाणं यस्य, है और जो स्वयं भी, जिसमे विधिपूर्वक अग्निहोत्रकालमें हवन स्वयं सम्यगग्निहोत्रकालेऽहुतम् , नहीं किया गया, ऐसा है तथा जो अदर्शादिवदवैश्वदेवं वैश्वदेव- । अदर्श आदिके समान अवैश्वदेव- वैश्वदेवकर्मसे रहित है और यदि कर्मवर्जितम् , हयमानमप्यविधिना [उसमें ] हवन भी किया गया है तो अविधिपूर्वक ही किया गया है, हुतं यथाहुतमित्येतद् यानी यथोचित रीतिसे जिसमें हवन एवं दुःसम्पादितमसम्पादितम् नही किया गया ऐसा है; इस प्रकार अनुचित रीतिसे किया हुआ अथवा अग्निहोत्राद्युपलक्षितं कर्म किं बिना किया हुआ अग्निहोत्र आदिसे उपलक्षित कर्म क्या करता है ? करोतीत्युच्यते । सो वतलाया जाता है- आसप्तमान्सप्तमसहितांस्तस्य वह कर्म केवल परिश्रममात्र फलबाला होनेके कारण उस कर्ताके कतुलॊकान्हिनस्ति हिनस्तीव सातों-सप्तम लोकसहित सम्पूर्ण लोकोंको नष्ट-विध्वस्त-सा कर आयासमात्रफलत्वात्।सम्यक्क्रिय- देता है । कर्मोका यथावत् अनुष्ठान न
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