पृष्ठ:मुण्डकोपनिषद्.djvu/३७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

खण्ड २] शाङ्करभाष्यार्थ माणेषु हि कर्मसु कर्मपरिणामा- किया जानेपर ही कर्मफलके अनुसार भूलॊकसे लेकर सत्यलोकपर्यन्त नुरूपेण भूरादयः सत्यान्ताः सात लोक फलरूपसे प्राप्त होते हैं। सप्त लोकाः फलं प्राप्यन्ते । ते वे लोक इस प्रकारके अग्निहोत्रादि कर्मसे तो अप्राप्य होनेके कारण लोका एवंभूतेनाग्निहोत्रादि- मानो नष्ट ही कर दिये जाते हैं । हाँ उसका परिश्रममात्र फल तो कर्मणात्वप्राप्यत्वादिस्यन्त इव। अव्यभिचारी-अनिवार्य है, इसी- आयासमात्रं त्वव्यभिचारीत्यतो लिये 'हिनस्ति' [ अर्थात् वह अग्निहोत्र उसके सातों लोकोंको हिनस्तीत्युच्यते । नष्ट कर देता है ] ऐसा कहा है। पिण्डदानाद्यनुग्रहण वा अथवा पिण्डदानादि अनुग्रहके द्वारा यजमानसे सम्बद्ध पिता, सम्बध्यमानाः पितृपितामह- पितामह और प्रपितामह [ये तीन पूर्वपुरुष ) तथा पुत्र, पौत्र और प्रपितामहाः पुत्रपौत्रप्रपौत्राः प्रपौत्र [ ये तीन आगे होनेवाली सन्ततियाँ ये ही अपने सहित] स्वात्मोपकाराः सप्त लोका उक्त- अपना उपकार करनेवाले सात लोक हैं। ये उक्त प्रकारके अग्निहोत्र प्रकारेणाग्रिहोत्रादिना न भव- आदिसे प्राप्त नहीं होते; इसलिये 'नष्ट कर दिये जाते हैं। इस प्रकार कहा न्तीति हिंस्यन्त इत्युच्यते ॥३॥ जाता है ॥३॥ अग्निकी सात जिह्वाएँ काली कराली च मनोजवा च सुलोहिता या च सुधूम्रवर्णा ।