पृष्ठ:मुण्डकोपनिषद्.djvu/३९

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खण्ड २] शाङ्करभाष्यार्थ ३१ एतेष्वग्निजिह्वाभेदेषु योऽग्नि जो अग्निहोत्री इन भ्राजमान- होत्री चरते कर्माचरत्यग्निहोत्रादि दीप्तिमान् अग्निजिह्वाके भेदोमें यथा- भ्राजमानेषु दीप्यमानेषु । यथा- काल यानी जिस कर्मका जो काल कालं च यस्य कर्मणो यः है उस कालका अतिक्रमण न कालस्तत्कालं यथाकालं यजमा- करते हुए अग्निहोत्रादि कर्मका नमाददायन्नाददाना आहुतयो यजमानेन निर्वतितास्तं नयन्ति आचरण करता है, उस यजमानको प्रापयन्त्येता आहुतयो या इमा इसकी दी हुई वे आहुतियाँ सूर्यकी अनेन निर्वतिताः सूर्यस्य रश्मयो किरणे होकर अर्थात् मूर्यकी भूत्वा रश्मिद्वाररित्यर्थः । यत्र किरणोंद्वारा वहाँ पहुँचा देती है यस्मिन्स्वर्गे देवानां पतिरिन्द्र 'जहाँ-जिस स्वर्गलोकमे देवताओंका एकः मर्वानुपरि अधि वमतीत्य- एकमात्र पति इन्द्र सबके ऊपर धिवासः ॥ ५ ॥ अधिवास-अधिष्ठान करता है।५। 1 कथं मूर्यस्य रश्मिभिर्यजमानं वे सूर्यकी किरणोंद्वारा यजमानको किस प्रकार ले जाती है, सो वहन्तीत्युच्यते- । बतलाया जाता है एह्येहीति तमाहुतयः सुवर्चसः सूर्यस्य रश्मिभिर्यजमानं वहन्ति । प्रियां वाचमभिवदन्त्योऽर्चयन्त्य एष वः पुण्यः सुकृतो ब्रह्मलोकः ॥ ६ ॥ वे दीप्तिमती आहुतियाँ 'आओ, आओ, यह तुम्हारे सुकृतसे प्राप्त हुआ पवित्र ब्रह्मलोक ( स्वर्ग) है' ऐसी प्रियवाणी कहकर यजमानका अर्चन ( सत्कार ) करती हुई उसे ले जाती है ॥ ६ ॥