पृष्ठ:मुण्डकोपनिषद्.djvu/४०

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३२ मुण्डकोपनिषद् [मुण्डक १ एोहीत्यायन्त्यः सुवर्च वे दीप्तिमती आहुतियाँ 'आओ, सो दीप्तिमत्यः किं च प्रियाम् आओ' इस प्रकार पुकारती तथा प्रिय इष्टां वाचं स्तुत्यादिलक्षणामभि- यानी स्तुति आदिरूप इष्टवाणी बोल- वदन्त्य उच्चारयन्त्योर्चयन्त्यः कर उसका अर्चन-पूजन करती हुई पूजयन्त्यश्चैष वो युष्माकं पुण्यः अर्थात् 'यह तुम्हारे सुकृतका फल- स्वरूप पवित्र ब्रह्मलोक है' इस सुकृतः पन्था ब्रह्मलोकः फलरूपः।। प्रकार प्रिय वाणी कहती हुई उसे एवं प्रियां वाचमभिवदन्त्यो ले जाती है । यहाँ स्वर्गहीको वहन्तीत्यर्थः । ब्रह्मलोकः स्वर्गः ब्रह्मलोक कहा है, क्योंकि प्रक- प्रकरणात् ॥६॥ रणसे यही ठोक माटम होता है ॥६॥ -- ज्ञानरहित कर्मकी निन्दा एतच्च ज्ञानरहितं कर्मताव इस प्रकार यह ज्ञानरहित कर्म इतने ही फलबाला है । यह अविद्या त्फलमविद्याकामकर्मकार्यमतो- काम और कर्मका कार्य है; इसलिये असार और दुःखकी जड़ है, सो ऽसारं दुःखमूलमिति निन्द्यते- इसकी निन्दा की जाती है- प्लवा ह्यते अदृढा यज्ञरूपा अष्टादशोक्तमवरं येषु कर्म । एतच्छ्यो येऽभिनन्दन्ति मूढा जरामृत्युं ते पुनरेवापि यन्ति ॥ ७ ॥ जिनमें [ज्ञानबाह्य होनेसे ] अवर-निकृष्टकर्म आश्रित कहा गया है वे [ सोलह ऋत्विक तथा यजमान और यजमानपत्नी ] ये अठारह यज्ञरूप ( यज्ञके साधन ) अस्थिर एवं नाशवान् बतलाये गये हैं । जो मूट 'यही श्रेय है' इस प्रकार इनका अभिनन्दन करते हैं, वे फिर भी जरा-मरणको प्राप्त होते रहते हैं ॥ ७ ॥