पृष्ठ:मुण्डकोपनिषद्.djvu/४२

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३४ मुण्डकोपनिषद् [मुण्डक १ तथा- अविद्याग्रस्त कर्मठोंकी दुर्दशा किञ्च- अविद्यायामन्तरे वर्तमानाः स्वयं धीराः पण्डितं मन्यमानाः । जवन्यमानाः परियन्ति मूढा अन्धेनैव नीयमाना यथान्धाः ॥ ८॥ अविद्याके मध्यमें रहनेवाले और अपनेको बड़ा बुद्धिमान् तथा पण्डित माननेवाले वे मूढ पुरुष अन्धेसे ले जाये जाते हुए अन्धेके समान पीडित होते सब ओर भटकते रहते हैं ॥ ८ ॥ अविद्यायामन्तरे मध्ये वर्त अविद्याके मध्यमें रहनेवाले बहुधा अविवेकी किन्तु 'हम माना अविवेकप्रायाः स्वयं वयमेव ही बड़े बुद्धिमान् और धीरा धीमन्तः पण्डिता विदित- पण्डित-ज्ञेय वस्तुको जाननेवाले है' ऐसा मानकर अपनेको सम्मानित वेदितव्याश्चेति मन्यमाना आत्मानं करनेवाले वे मूढ पुरुष-जरा- सम्भावयन्तस्ते च जवन्य- रोग आदि अनेक अनर्थजालमे । जन्यमान-हन्यमान अर्थात् माना जरारोगायनेकानर्थवातैः अत्यन्त पीडित होते सब ओर हन्यमाना भृशं पीब्यमानाः परि- घूमते-भटकते रहते हैं । जिस प्रकार लोकमें दृष्टिहीन होनेके कारण यन्ति विभ्रमन्ति मूढाः । दर्शन- अन्धे अर्थात् नेत्रहीनसे ले जाये वर्जितत्वादन्धेनवाचक्षुष्केणेव जाते हुए-मार्ग प्रदर्शित किये नीयमानाः प्रदश्यमानमार्गा यथा जाते हुए अन्धे-नेत्रहीन पुरुप लोकऽन्धा अक्षिरहिता गर्तकण्ट- रहते है उसी प्रकार [ वे भी गड्ढे और काँटे आदिमें गिरते कादौ पनन्ति तद्वत् ॥८॥ पीडा-पर-पीडा उठाते रहते हैं ॥८॥