पृष्ठ:मुण्डकोपनिषद्.djvu/४४

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मुण्डकोपनिषद् [मुण्डक १ इष्ट और पूर्त कर्मोको ही सर्वोत्तम माननेवाले वे महामूट किसी अन्य वस्तुको श्रेयस्कर नहीं समझते । वे स्वर्गलोकके उच्च स्थानमें अपने कर्मफलोंका अनुभव कर इस [ मनुष्य ] लोक अथवा इससे भी निकृष्ट लोकमें प्रवेश करते हैं ॥ १०॥ इष्टं यागादि श्रोतं कर्म, इष्ट यानी यागादि श्रौतकर्म पूर्त वापीकूपतडागादि सात और पूर्त-वापी-कूप-तडागादि स्मार्तकर्म 'ये ही अधिकतासे मन्यमाना एतदेवातिशयेन पुरुषार्थके साधन हैं, अतः ये ही पुरुषार्थसाधनं वरिष्ठं प्रधानमिति सर्वश्रेष्ठ यानी प्रधान हैं' इस प्रकार मानते अर्थात् चिन्तन करते चिन्तयन्तोऽन्यदात्मज्ञानाख्यं हुए वे प्रमूट-प्रमत्ततावश पुत्र, श्रेयसाधनं न वेदयन्ते न जान- पशु और बान्धवादिमें मूढ हुए लोग आत्मज्ञानसंज्ञक किसी और न्ति, प्रमूढाः पुत्रपशुबन्ध्वादिषु श्रेयःसाधनको नहीं जानते । वे प्रमत्ततया मूढाः । ते च नाकस्य नाक यानी वर्गके पृष्ठ---उच्च स्वर्गस्य पृष्ठ उपरिस्थाने सुकृत स्थानमें अपने सुकृत-भोगायतन ( पुण्यभोगके लिये प्राप्त हुए दिव्य भोगायतनेऽनुभूत्वानुभूय कर्म- देह ) में कर्मफलका अनुभव कर फलं पुनरिमं लोकं मानुषमस्माद्धीन- अपने अवशिष्ट कर्मानुसार फिर इसी मनुष्यलोक अथवा इससे तरं वा तिर्यङ्नरकादिलक्षणं निकृष्टतर तिर्यजनरकादिरूप योनि- यथाकर्मशेष विशन्ति ॥१०॥ योंमें प्रवेश करते हैं ॥ १०॥ तपाश्रद्धे ये ह्युपवसन्त्यरण्ये शान्ता विद्वांसो भैक्ष्यचर्या चरन्तः । सूर्यद्वारेण ते विरजाः प्रयान्ति यत्रामृतः स पुरुषो ह्यव्ययात्मा ॥ ११ ॥