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पृष्ठ:मुण्डकोपनिषद्.djvu/४५

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खण्ड २] शाङ्करभाष्यार्थ ३७ किन्तु जो शान्त और विद्वान् लोग वनमें रहकर भिक्षावृत्तिका आचरण करते हुए तप और श्रद्धाका सेवन करते हैं वे पापरहित होकर सूर्यद्वार ( उत्तरायणमार्ग ) से वहाँ जाते हैं जहाँ वह अमृत और अव्यय- खरूप पुरुष रहता है ॥११॥ ये पुनस्तद्विपरीता ज्ञानयुक्ता किन्तु इसके विपरीत जो वानप्रस्थाः संन्यासिनश्च तप:श्रद्धे ज्ञानसम्पन्न वानप्रस्थ और संन्यासी हि तपः खाश्रमविहितं कर्म आश्रमविहित कर्मका नाम 'तप' है लोग तप और श्रद्धाका-अपने श्रद्धा हिरण्यगर्भादिविषया विद्या; और हिरण्यगर्भादिविषयक विद्याको ते तपः श्रद्धे उपवसन्ति सेवन्ते- 'श्रद्धा' कहते हैं, उन तप और ऽरण्ये वर्तमानाः मन्तः; शान्ता श्रद्धाका वनमें रहकर सेवन करते हैं; तथा जो शान्त -जिनकी उपरतकरणग्रामा, विद्वांसो इन्द्रियाँ विषयोंसे निवृत्त हो गयी हैं गृहस्थाश्च ज्ञानप्रधाना इत्यर्थः। ऐसे विद्वान् लोग तथा ज्ञान- भैक्ष्यचर्या चरन्तः परिग्रहाभा- प्रधान गृहस्थ लोग परिग्रह न करनेके कारण भिक्षाचर्याका आचरण करते वादुपवसन्त्यरण्य इति सम्बन्धः हुए वनमें रहते हैं वे विरज सूर्यद्वारेण सूर्योपलक्षितेनोत्तराय- अर्थात् जिनके पाप-पुण्य क्षीण हो णेन पथा ते विरजा विरजसः गये हैं ऐसे होकर सूर्यद्वारसे- सूर्योपलक्षित उत्तरमार्गसे क्षीणपुण्यपापकर्माणः प्रयाण करते-प्रकर्षतः गमन करते इत्यर्थः प्रयान्ति प्रकर्षेण यान्ति हैं जहाँ-जिस सत्यलोकादिमें वह यत्र यस्मिन्सत्यलोकादावमृतः अमृत और अव्ययात्मा-संसारकी स्थितिपर्यन्त रहनेवाला अव्यय- स पुरुषः प्रथमजो हिरण्यगर्भो खभाव पुरुष अर्थात् सबसे पहले ह्यव्ययात्माव्ययस्वभावो यावत्स- उत्पन्न हुआ हिरण्यगर्भ रहता है । सारस्थायी । एतदन्तास्तु संसार- सांसारिक गतियाँ तो बस यहीं- अपरा विद्यासे प्राप्त होनेवाली गतयोऽपरविद्यागम्याः । तक हैं। वहाँ सन्त