पृष्ठ:मुण्डकोपनिषद्.djvu/४६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

३८ मुण्डकोपनिषद् [मुण्डक १ कामा" ननु-एतं मोक्षमिच्छन्ति शङ्का-परन्तु कोई-कोई तो केचित् । इसीको मोक्ष समझते न; "इहैव सर्वे प्रविलीयन्ति समाधान-ऐसा समझना उचित नहीं है । "उसकी सम्पूर्ण कामनाएँ (मु० उ०३।२।२) यहीं लीन हो जाती हैवे संयतचित्त "ते सर्वगं सर्वतः प्राप्य धीरा धीर पुरुष उस सर्वगत ब्रह्मको सब ओर प्राप्त कर सभीमें प्रवेश कर युक्तात्मानः सर्वमेवाविशन्ति" जाते हैं" इत्यादि श्रुतियोंसे [ब्रह्म- (मु० उ०३। २।५ ) इत्यादि से मुक्ति और सर्वात्मभावकी प्राप्ति वेत्ताको इसी लोकमें सम्पूर्ण कामना- श्रुतिभ्योऽप्रकरणाच्च । अपर- बतलायी गयी है ] । इसके सिवा यह मोक्षका प्रकरण भी नहीं है । विद्याप्रकरणे हि प्रवृत्ते न द्यक- अपरा विद्याके प्रकरणके चालू सान्मोक्षप्रसङ्गोऽस्ति । विरज- रहते हुए अकस्मात् मोक्षका प्रसङ्ग नहीं आ सकता। और उसकी स्त्वं त्वापेक्षिकम् । समस्तमपर- विरजस्कता (निष्पापता ) तो विद्याकार्य आपेक्षिक है। अपरा विद्याका साध्यसाधनलक्षणं साध्य-साधनरूप, क्रिया-कारक क्रियाकारकफलभेदभिन्नं द्वैतम् और फलरूप भेदोंसे भिन्न तथा द्वैतरूप समस्त कार्य इतना ही है एतावदेव यद्धिरण्यगर्भप्राप्त्यव- जिसका कि हिरण्यगर्भकी प्राप्तिमें सानम् । तथा च मनुनोक्तं स्था- पर्यवसान होता है । स्थावरोंसे लेकर क्रमशः संसारगतिकी गणना वरायां संसारगतिमनुक्रामता करते हुए मनुजीने भी ऐसा ही "ब्रह्मा विश्वसृजो धर्मो महान- कहा है-"ब्रह्मा, मरीचि आदि प्रजापतिगण, यमराज, महत्तत्त्व व्यक्तमेव च । उत्तमां सात्त्वि- और अव्यक्त [ इनके लोकोंको