खण्ड २] शाङ्करभाष्यार्थ ३९ उत्तम कीमेतां गतिमाहुर्मनीषिण" होना ]—यह विद्वानोंने (मनु० १२१५०) इति ।।११।। सात्त्विकी गति बतलायी है"॥११॥ ऐहिक और पारलौकिक भोगोंकी असारता देखनेवाले पुरुषके लिये संन्यास और गुरूपसदनका विधान अथदानीममात्साध्यसाधन तत्पश्चात् अब इस साध्य- रूपात्मवस्मात्संसाराद्विरक्तस्य साधनरूप सम्पूर्ण संसारसे विरक्त परस्यां विद्यायामधिकारप्रदर्श- हुए पुरुषका परा विद्यामें अधिकार नार्थमिदमुच्यते- दिखाने के लिये यह कहा जाता है- परीक्ष्य लोकान्कर्मचितान्ब्राह्मणो निर्वेदमायान्नास्त्यकृतः कृतेन । तद्विज्ञानार्थं स गुरुमेवाभिगच्छेत् समित्पाणिः श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम् ॥ १२ ॥ कर्मद्वारा प्राप्त हुए लोकोंकी परीक्षा कर ब्राह्मण निर्वेदको प्राप्त हो जाय, [ क्योंकि संसारमें ] अकृत (नित्य पदार्थ ) नही है, और कृतसे [ हमें प्रयोजन क्या है ? ] अतः उस नित्य वस्तुका साक्षात् ज्ञान प्राप्त करनेके लिये तो हाथमे समिधा लेकर श्रोत्रिय और ब्रह्मनिष्ट गुरुके ही पास जाना चाहिये ॥ १२ ॥ परीक्ष्य यदेतदृग्वेदाद्यपर-। यह जो ऋग्वेदादि अपरविद्या- विषयक, तथा अविद्यादि दोषयुक्त विद्याविषयं स्वाभाविक्यविद्या- पुरुषके लिये ही विहित होनेके कामकर्मदापवत्पुरुषानुष्ठेयम | कारण स्वभावसे ही अविद्या काम और कर्मरूप दोषसे युक्त पुरुषोंद्वारा विद्यादिदोषवन्तमेव पुरुष प्रति अनुष्ठान किये जानेयोग्य कर्म है विहितत्वात्तदनुष्ठानकार्यभूताश्च तथा उसके अनुष्ठानके कार्यभूत .
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