४० मुण्डकोपनिषद् [ मुण्डक १ , लोका ये दक्षिणोत्तरमार्गलक्षणाः अर्थात् फलखरूप दक्षिण एवं उत्तरमार्गरूप लोक हैं और विहित फलभूताः, ये च विहिताकरण- कर्म न करने एवं प्रतिषिद्धके प्रतिषेधातिक्रमदोषसाध्या नरक- करनेके दोपसे प्राप्त होनेवाली जो तिर्यप्रेतलक्षणास्तानेतान्परीक्ष्य नरक, तिर्यक् तथा प्रेतादि योनियाँ हैं उन इन सभीकी परीक्षा कर अर्थात् प्रत्यक्षानुमानोपमानागमैः सर्वतो प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और आगम-इन चारों प्रमाणोंसे सब याथात्म्येनावधार्य लोकान् प्रकार उनका यथावत् निश्चय कर संसारगतिभूतान् अव्यक्तादि- जो बीज और अङ्करके समान एक-दूसरेकी उत्पत्तिके कारण हैं, स्थावरान्तान्व्याकृताव्याकृत अनेकों-सैकड़ों-हजारों अनर्थोसे लक्षणान् बीजाङ्कुरवदितरेतरोत्प- व्याप्त हैं, केलेके भीतरी भागके समान सारहीन हैं, माया, मृगजल त्तिनिमित्ताननेकानर्थशतसहस्र- और गन्धर्वनगरके समान भ्रमपूर्ण सङ्घलान्कदलीगर्भवदसारान् तथा स्वप्न, जलबुबुद ओर फेनके सदृश क्षण-क्षणमें नष्ट होनेवाले मायामरीच्युदकगन्धर्वनगराकार- हैं और अविद्या एवं कामरूप दोपसे प्रवर्तित कमोंसे प्राप्त यानी धर्मा- स्वमजलबुद्रुदफेनसमान्प्रति- धर्मजनित हैं उन व्यक्त-अव्यक्तरूप क्षणप्रध्वंसान्पृष्ठतः कृत्वाविद्या- तथा संसारगतिभूत अध्यक्तसे लेकर स्थावरपर्यन्त लोकोंकी कामदोषप्रवर्तितकर्मचितान्धर्मा- ओरसे मुख मोड़कर ब्राह्मण धर्मनिवर्तितानित्येतत् । ब्राह्मण- [ उनसे विरक्त हो जाय ] । सर्व- त्यागके द्वारा ब्राह्मणका ही ब्रह्म- स्यैव विशेषतोऽधिकारः सर्वत्या- विद्या में विशेषरूपसे अधिकार है; गेन ब्रह्मविद्यायामिति ब्राह्मण- इसलिये यहाँ 'ब्राह्मण' पदका ग्रहण किया गया है । इस प्रकार लोकोंकी ग्रहणम् । परीक्ष्य लोकान्कि कुर्यात् । परीक्षा कर वह क्या करे, सो बत- समस्त
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