पृष्ठ:मुण्डकोपनिषद्.djvu/५०

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मुण्डकोपनिषद् [मुण्डक १ ब्रह्मज्ञानान्वेषणं न कुर्यादित्येतद् का अन्वेषण न करे—यही 'गुरुमेव' इस पदसमूहमें आये हुए निश्चयात्मक गुरुमेवेत्यवधारणफलम् । 'एव' पदका अभिप्राय है। समित्पाणिः समिद्भारगृहीत समित्पाणिः अर्थात् हाथमें समिधाओंका भार लेकर श्रोत्रिय हस्तः श्रोत्रियमध्ययनश्रुतार्थ- यानी अध्ययन और श्रवण किये सम्पन्नं ब्रह्मनिष्ठं हित्वा सर्व- अर्थसे सम्पन्न तथा ब्रह्मनिष्ट [गुरुके पास जाय ]-सम्पूर्ण कर्माणि केवलेऽद्वये ब्रह्मणि निष्ठा । कर्मोको त्यागकर जिसकी केवल अद्वितीय ब्रह्ममें ही निष्ठा है वह यस्य सोऽयं ब्रह्मनिष्ठो जपनिष्ठ- ब्रह्मनिष्ठ कहलाता है; जपनिष्ठ स्तपोनिष्ठ इति यद्वत् । न हि तपोनिष्ठ आदिके समान ही यह 'ब्रह्मनिष्ठ' शब्द है । कर्मठ पुरुषको कर्मिणो ब्रह्मनिष्ठता सम्भवति ब्रह्मनिष्टा कभी नहीं हो सकती, क्योंकि कर्म और आत्मज्ञानका कर्मात्मज्ञानयोविरोधात् । म परस्पर विरोध है । इस प्रकार उन तं गुरुं विधिवदुपसन्नः प्रसाद गुरुदेवके पास विधिपूर्वक जाकर उन्हे प्रसन्न कर सत्य और अक्षर पृच्छेदक्षरं पुरुष सत्यम् ॥१२॥ पुरुपके सम्बन्धमें पूछे ॥ १२ ॥ गुरुके लिये उपदेशपद नकी विधि तस्मै स विद्वानुपसन्नाय सम्य- क्प्रशान्तचित्ताय शमान्विताय । येनाक्षरं पुरुषं वेद सत्यं प्रोवाच तां तत्त्वतो ब्रह्मविद्याम् ॥१३॥