खण्ड २] शाङ्करभाष्यार्थ वह विद्वान् गुरु अपने समीप आये हुए उस पूर्णतया शान्तचित्त एवं जितेन्द्रिय शिष्यको उस ब्रह्मविद्याका तत्त्वतः उपदेश करे जिससे उस सत्य और अक्षर पुरुषका ज्ञान होता है ॥ १३ ॥ तस्मै स विद्वान् गुरुब्रह्मविद् वह विद्वान्--ब्रह्मवेत्ता गुरु उपसनायोपगताय सम्यग्यथा- अपने समीप आये हुए उस शास्त्रमित्येतत्, प्रशान्तचित्ताय गर्व आदि दोषोसे रहित तथा सम्यक-यथाशास्त्र प्रशान्तचित्त- उपरतदादिदोषाय शमान्विताय शमसम्पन्न बाह्य इन्द्रियोंकी उप- बाह्येन्द्रियोपरमेण च युक्ताय रतिसे युक्त और सब ओरसे विरक्त सर्वतो विरक्तायेत्येतत् । हुए शिष्यको, जिस विज्ञान अथवा जिस परा विद्यासे उस अद्रेश्यादि येन विज्ञानेन यया विद्यया विशेषणवाले तथा पूर्ण होने या परयाक्षरमद्रेश्यादिविशेषणं तदे- शरीररूप पुरमे शयन करनेके वाक्षरं पुरुषशब्दवाच्यं पूर्णत्वात् । कारण 'पुरुष' शब्दवाच्य अक्षरको, पुरि शयनाच सत्यं तदेव परमार्थ- जो क्षरण ( च्युत होना ) क्षत । ( व्रण) और क्षय ( नाश ) से स्वाभाव्यादक्षरं चाक्षरणादक्षत- रहित होनेके कारण 'अक्षर' कह- त्वादक्षयत्वाच्च वेद विजानाति लाता है, जानता है उस ब्रह्मविद्याका तां ब्रह्मविद्यां तत्त्वतो यथावत् तत्त्वतः यथावत् उपदेश करे- प्रोवाच प्रत्यादित्यर्थः । आचार्य- यह इसका भावार्थ है । आचार्यके लिये भी यही नियम है कि न्याया- स्थाप्ययं नियमो यन्न्याय- नुसार अपने समीप आये हुए प्राप्तसच्छिष्यनिस्तारणमविद्या सच्छिष्यको अविद्यामहासमुद्रसे महोदधेः ॥१३॥ पार कर दे ॥ १३ ॥ इत्यथर्ववेदीयमुण्डकोपनिषद्भाष्ये प्रथममुण्डके द्वितीयः खण्डः ॥२॥ समाप्तमिदं प्रथमं मुण्डकम् ।
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