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पृष्ठ:मुण्डकोपनिषद्.djvu/५८

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५० मुण्डकोपनिषद् [मुण्डक २ ब्रह्मका सर्वकारणत्व कथं ते न सन्ति प्राणादय वे प्राणादि उस अक्षरमें क्यों इत्युच्यते, यमात्- नहीं हैं ? सोबतलाते हैं क्योंकि-- एतस्माज्जायते प्राणो मनः सर्वेन्द्रियाणि च । खं वायुयोतिरापः पृथिवी विश्वस्य धारिणी ॥ ३ ॥ इस ( अक्षर पुरुष ) से ही प्राण उत्पन्न होता है तथा इससे ही मन, सम्पूर्ण इन्द्रियाँ, आकाश, वायु, तेज, जल और सारे संसारको धारण करनेवाली पृथिवी [ उत्पन्न होती है ] ॥ ३ ॥ एतस्मादेव पुरुषानामरूप नाम-रूपकी बीजभूत [अविद्या- बीजोपाधिलक्षिताजायत उत्प- रूप] उपाधिसे उपलक्षित* इस पुरुपसे ही अविद्याका विपय द्यतेऽविद्याविषयविकारभूतो नाम- विकारभूत केवल नाममात्र तथा धेयोऽनृतात्मकः प्राणः “वाचा- मिथ्या प्राण उत्पन्न होता है; जैसा रम्भणं विकारो नामधेयम्" । कि "विकार वाणीका विलास और नाममात्र है" "वह मिथ्या है" ऐसी (छा० उ०६।१।४) "अनृ- । अन्य श्रुतिसे सिद्ध होता है । उस तम्" इति श्रुत्यन्तरात् । न हि अविद्याविषयक मिथ्या प्राणसे तेनाविद्याविषयेणानृतेन प्राणेन परब्रह्मका सप्राणत्व सिद्ध नहीं हो सकता, जैसे कि स्वप्नमें देखे हुए सप्राणत्वं परस्य स्यादपुत्रस्य : पत्रसे पुत्रहीन व्यक्ति पुत्रवान् स्वप्नदृष्टेनेव पुत्रेण मपुत्रत्वम् | नहीं हो सकता । एवं मनः सर्वाणि चेन्द्रियाणि इस प्रकार मन, सम्पूर्ण इन्द्रियाँ विषयाश्चैतस्मादेव जायन्ते । और उनके विषय भी इसीसे उत्पन्न

  • निरुपाधिक विशुद्ध ब्रह्ममे किसी भी विकारकी उत्पत्ति सम्भव नहीं है।

इसलिये जब उससे किसीकी उत्पत्तिका प्रतिपादन किया जायगा तो उसमें अविद्या या मायाके सम्बन्धका आरोप करके ही किया जायगा ।