सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:मुण्डकोपनिषद्.djvu/५९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

खण्ड १] शाङ्करभाष्यार्थ ५१ तसात्सिद्धमस्य निरुपचरित- होते हैं । अतः उसका मुख्यरूपसे मप्राणादिमत्वमित्यर्थः । यथा च अप्राणादिमान् होना सिद्ध हुआ । वे जिस प्रकार अपनी उत्पत्तिसे पूर्व प्रागुत्पत्तेः परमार्थतोऽसन्तस्तथा वस्तुतः असत् ही थे उसी प्रकार प्रलीनाश्चेति द्रष्टव्याः । यथा लीन होनेपर भी असत् ही रहते हैं—ऐसा समझना चाहिये । जिस करणानि मनश्चेन्द्रियाणि तथा प्रकार करण-मन और इन्द्रियाँ शरीरविषयकारणानि भूतानि [इससे उत्पन्न होते हैं ] उसी ग्वमाकाशं वायुरन्तर्बाह्य आव- प्रकार शरीर और इन्द्रियोंके विषयोंके कारणस्वरूप भूतवर्ग हादिभेदः, ज्योतिरनिः, आप आकाश, आवहादि भेदोंवाला उदकम्। पृथिवी धरित्री बाह्य वायु, अग्नि, जल और विश्व यानी सबको धारण करनेवाली विश्वस्य सर्वस्य धारिणी एतानि च पृथिवी-ये पाँच भूत, जो पूर्व-पूर्व शब्दस्पर्शरूपरसगन्धोत्तरोत्तर गुणके सहित उत्तरोत्तर क्रमशः शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध गुणानि पूर्वपूर्वगुणमहितान्ये- इन गुणोसे युक्त है, तस्मादेव जायन्ते ॥३॥ होते हैं ॥ ३ ॥ उत्पन्न DO मंक्षेपतः परविद्याविषयमक्षरं। परविद्याके विषयभूत निर्विशेष सत्य पुरुषका 'दिव्यो ह्यमूर्तः' निर्विशेषं पुरुषं सत्यं दिव्यो इत्यादि मन्त्रसे संक्षेपतः वर्णन कर ह्यमूर्त इत्यादिना मन्त्रेणोक्त्वा अब उसी तत्त्वका सविशेषरूपसे विस्तारपूर्वक वर्णन करना है- पुनस्तदेव सविशेषं विस्तरेण इसीके लिये यह श्रुति प्रवृत्त होती है; क्योंकि सूत्र और उसके भाष्यके वक्तव्यमिति प्रववृतेसंक्षेपविस्त- समान [पहले ] संक्षेपमें और रोक्तो हि पदार्थः सुखाधिगम्यो। [फिर ] विस्तारपूर्वक कहा हुआ