पृष्ठ:मुण्डकोपनिषद्.djvu/८४

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मुण्डकोपनिषद् [मुण्डक २ फलानि ज्ञानोत्पत्तिसहभावीनि हैं और जो ज्ञानोत्पत्तिके साथ- साथ किये जाते हैं वे सभी नष्ट हो च क्षीयन्ते कर्माणि । न त्वेत- जाते हैं; किन्तु इस (वर्तमान ) जन्मको आरम्भ करनेवाले कर्म जन्मारम्भकाणि प्रवृत्तफलत्वात् । क्षीण नहीं होते, क्योंकि उनका तस्मिन्सर्वज्ञेऽसंसारिणि परावरे फल देना आरम्भ हो जाता है । तात्पर्य यह है कि उस सर्वज्ञ परं च कारणात्मनावरं च असंसारी परावर–कारणरूपसे पर और कार्यरूपसे अवर ऐसे उस कार्यात्मना तस्मिन्परावरे साक्षा- 'परावरके 'यह साक्षात् मैं ही हूँ' इस प्रकार देख लिये जानेपर संसारके दहमस्मीति दृष्टे संसारकारणो- कारणका उच्छेद हो जानेसे यह च्छेदान्मुच्यत इत्यर्थः ॥८॥ | पुरुष मुक्त हो जाता है ।। ८ ।। उक्तस्यैवार्थस्य सङ्क्रपाभि आगेके तीन मन्त्र भी पूर्वोक्त अर्थको ही संक्षेपसे बतलाने- धायका उत्तरे मन्त्रास्त्रयोऽपि-- वाले हैं- ज्योतिर्मय ब्रह्म हिरण्मये परे कोशे विरजं ब्रह्म निष्कलम् । यच्छुळं ज्योतिषां ज्योतिस्तद्यदात्मविदो विदुः ॥ ६ ॥ वह निर्मल और कलाहीन ब्रह्म हिरण्मय (ज्योतिर्मय ) परम कोशमें विद्यमान है । वह शुद्ध और सम्पूर्ण ज्योतिर्मय पदार्थोकी ज्योति है और वह है जिसे कि आत्मज्ञानी पुरुष जानते हैं ॥ ९॥