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पृष्ठ:मुद्राराक्षस.djvu/१०५

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३४ मुद्राराक्षस नाट्य सिद्धार्थक --महाराज | कुसुमपुर में जो चंदनदास जौहरी है, उनके द्वार पर पड़ो पाई। राक्षस-ता ठीक है। सिद्धार्थक-महाराज ! ठोक क्या है ? राइस-यही कि ऐसे धनिकों के घर धिना यह वस्तु और कहाँ मिले ? शकटदाल-मित्र ! यह मत्री जी के नाम की मोहर है, इससे तुम इसको मत्रः को दे दो तो इसके बदले तुम्हें बहुत पुरस्कार मिलेगा। सिद्धार्थक-महाराज! मेरे ऐसे भाग्य कहाँ कि आप इसे लें। (मोहर देता है) राक्षस-मित्र शकरदास ! इसी मुद्रा से सब काम किया करो। शकटदास-जो आज्ञा। सिद्धार्थक-महाराज ! मैं कुछ विनती करूँ! राक्षस हाँ हाँ! अवश्य करो। सिद्धार्थक-यह तो आप जानते ही हैं कि उस दुष्ट चाणक्य के बुराई करके फिर मैं पटने में घुस नहीं सकता, इससे कुछ दिन आप ही के चरणों की सेवा किया चाहता हूँ। राक्षस-बहुत अच्छी बात यह है, लोग तो ऐसा चाहते ही अच्छा है, यहीं रहो। सिद्धार्थक-(हाथ जोड़ कर ) बड़ी कृपा हुई। राक्षस--मित्र शकटदास ! ले जाओ इसको उतारो और सा भोजनादिक का ठीक करो। शकटदास-जो आधा। सिद्धार्थक को लेकर जाता है।] . ... सक्षम--मित्र विराधगुप्त ! अब तुम कुसुमपुर का वृत्तांत जो छूर गया था सो कहो। वहाँ के निवासियों की मेरी बातें अच्छी लगतं है कि नहीं। 4