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पृष्ठ:मुद्राराक्षस.djvu/१२१

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मुद्राराक्षस नाना चंद्रगुप्त-(घबड़ाकर आप ही आप ) अरे ! क्या आर्य के समुव क्रोध मा गया! फर फर फरकत अधर-पुट, भए नयन जुग बाल । . . चढ़ी जाति भोहैं कुटिल, स्वास तजत जिमि ब्याल ॥ मनहुँ अचानक रुद्र-हग खुल्यो त्रितिय दिखरात । (अवेग सहित) घरनी धार्यो बिनु फंसे हा हा किमि पद-घात ॥ चाणक्य-नकली क्रोध रोककर ) तो वृषल! इस कोरी वकव से क्या नाम है ? जो राक्षस चतुर है तो यह शस्त्र उसी को दे (शस्त्र फेंककर और उठकर ऊपर देखते हुए श्राप ही आप ) ह ह । सक्षम यही तुमने चाणक्य को जीतने का उपाय किया। तुम जान्यो चाणक्य सो नृप चंद्रहि लरवाय । सहजहि लेहैं रान हम निज बल बुद्धि उपाय ॥ सो हम तुमही कहँ छलन कियो क्रोध परकास । तुमरोई करिहै उलटि यह तुव भेद बिनास ॥ [क्रोध प्रकट करता हुआ चला जाता है] चंद्रगुत-बर्य वैहीतर ! " चाणक्य का अनादर करके आज चद्रगुम सब काम काज आर ही संभालेंगे," यह लोगों से कह दो। कचुकी-(श्राप ही आप ) अरे ! आज महाराज ने चाणक्य पहले 'मार्य शब्द नहीं कहा! क्यों ? क्या सचमुच अधिकार छ लिया ? वा इसमें महाराज का क्या दोष है ? प्रचिव-दोष.षों होत हैं नृपहु बुरे ततकाल । हाथीवान-प्रमाद सों गज कहवावत व्याल ॥ चद्गुम-क्यों जी? क्या सोच रहे हो! कंचुकी-यही कि महाराज को 'महाराज' शब्द अब यथ शोभा देता है। चंगुत-(आप ही आप ) इन्हीं लोगों के धोखा खाने से अ का काम होगा। (प्रकट ) शोणोत्तरे ! इस सूखी कलह से हम सिर दुखने लगा, इससे शरनगृह का मार्ग दिखलाओ।