पृष्ठ:मुद्राराक्षस.djvu/१५८

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७ छठा अंक निश्चय wिया कि फॉमी लगा कर मर जाय और इसी हेतु यहाँ आये हैं। राक्षस-(घबड़ा कर ) अभी चंदनदास को मारा तो नहीं ? पुरुष-आर्य ! अभी नहीं मारा है, बारंबार भब भी उनसे अमात्य गक्षम का कुटुम्ब माँगते हैं और वह मित्रवत्सलता से २४० नहीं देत; इसी में इतना बिलंव हुआ। . राक्षस-सहर्ष आप ही पार) वाह मित्र चंदनदास ! वाह ! धन्य ! धन्य ! मित्र परोच्छहु मैं कियो सरनागत प्रतिपाल । निरमल जम सिबि सो लियो तुम या काल कराल ॥ • (प्रकाश) भद्र। तुम शीघ्र जाकर बिष्णुरास को जलने से . रोको, हम जाकर अभी चंदनदास को छुदाते है। पुरुष-पाय! भाप किस उपाय से चंद नदास को छुड़ाइएगा ? राक्षस-(खड़ा मियान से खींचकर ) इस दुःख में एकांत मित्र निष्कृय कृपण मे। २५० समर-साथ तन पुलकित, नित साथी मम कर को। रन महँ बारहिं बार परिछ्यो जिन बल पर को॥ बिगत जलद नभ नील खड्ग यह रेस बढ़ावत । मीत कष्ट सो दुखिहु मोहि रनहित उमगावत ॥ · पुरुष-सेठ चंदनदास के प्राण बचने का उपाय मैंने सुना, किंतु ऐसे टेढ़े समय में इसका परिणाम क्या होगा, यह मैं नहीं कह सकता (राक्षस को देख कर पैर पर गिरता है ) आर्य ! स गृहीत नामधेय अमात्य राक्षस श्राप ही है ? यह मेरा सन्देह आप दूर कीजिए । राक्षस-भद्र ! भर्तु कुल विनाश से दुखी और मित्र के नाश का कारण यथार्थनामा अनार्य राक्ष व मैं ही हूँ। २६० पुरुष-फिर पैर पर गिरता है ) धन्य हैं ! बड़ा ही आनंद हुभा। मापने हमको आज कृतकृत्य किया।